Book Title: Bharatiya Vangamaya me Dhyan Yoga Author(s): Priyadarshanaji Sadhvi Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf View full book textPage 6
________________ - d सक साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ । वह व्यग्र न रहकर एकाग्र हो जाता है। चिन्ता-एकाग्र-निरोधन' के लिए 'प्रसंस्थान' 'समाधि' और 'ध्यान' संज्ञा दी गई है1 । जो इष्टफल प्रदाता होता है। प्रस्तुत वाच्यार्थ में 'निरोध' शब्द का प्रयोग भाव-साधन में न कर कर्म-साधन में किया है । जो रोका जाता है वह निरोध है जिसमें चिन्ता का निरोध किया जाता है (जो चिन्ता का निरोध करता है) वह चिन्तानिरोध है। इसमें जो एकाग्र शब्द आया है वह निर्दोषजनक है। इसमें द्रव्य से पर्याय और पर्याय से द्रव्य में संक्रमण का विधान है। ध्यान अनेकमुखी नहीं एकमुखी है और उस मुख में भी संक्रमण होता रहता है । 'अन' आत्मा को भी कहते हैं। ध्यान लक्षण में आत्मा को ही प्रधान लक्ष्य माना गया है । ध्यान स्ववृत्ति होता है। बाह्य चिन्ताओं से निवृत्ति होती है । इसलिए ध्यान की व्याख्या में एकाग्र चिन्तानिरोध' ही यथार्थ है ।21 श्रुतज्ञान और नय की दृष्टि से ध्यान का विशेष लक्षण स्थिर मन का नाम ध्यान और स्थिर तात्त्विक (यथार्य) श्रुतज्ञान का नाम भी ध्यान ही है। ज्ञान और आत्मा एक ही पर्यायवाची नाम है । जिस समय जो विवक्षित होता है उस नाम का प्रयोग किया जाता है। जब आत्मा नाम विवक्षित होता है तब उसके परिचय के लिए कहा जाता है कि वह ज्ञानस्वरूप है और जब ज्ञान नाम विवक्षित होता है तब उसके परिचय के लिए कहा जाता है कि वह आत्मस्वरूप है । इससे स्पष्ट होता है कि आत्मज्ञान और ज्ञान आत्मा ही ध्यान है। रागद्वेषरहित तात्विक (निर्मल) श्रुतज्ञान अन्तर्मुहूर्त में स्वर्ग या मोक्षप्रदाता होता है । यह ध्यान छद्मस्थों को होता है । जिनका ध्यान 'योगनिरोध' है। जिस श्रुतज्ञान को ध्यान कहा है उसमें ये तीन विशेषण होते हैं१ उदासीन, २ यथार्थ और ३ अतिनिश्चल । इन विशेषणों से रहित श्रुतज्ञान ध्यान की कोटि में नहीं आता, क्योंकि वह व्यग्र होता है किन्तु ध्यान व्यग्र नहीं होता । 'अन्तर्मुहूर्त' पद से ध्यान की उत्कृष्ट स्थिति स्पष्ट की है। यह कालमर्यादा उत्तम संहनन वालों (शरीर की मजबूती) की दृष्टि है, हीन संहननवालों की दृष्टि से नहीं है । एक ही विषय में लगातार ध्यान इतने समय तक भी नहीं रह पाता है । इससे भी कम काल की मर्यादा को लिए हुए होता है। 'अन्तर्मुहूर्त' छद्मस्थ की दृष्टि से है, केवलज्ञानियों की दृष्टि से नहीं। अन्तर्महर्त के पश्चात् चिन्ता दूसरी वस्तु का आलंबन लेकर ध्यानान्तर के रूप में बदल जाती है। बहत वस्तुओं का संक्रमण होने से ध्यान की संतान चिर काल तक चलती रहती है। यह छद्मस्थ के ध्यान का लक्षण है । यही श्रुतज्ञान स्वर्ग मोक्ष प्रदाता है तथा करण साधन-निरुक्त की दृष्टि से स्थिर मन अथवा स्थिर तात्विक श्रुतज्ञान को ध्यान कहा है । यह कथन निश्चयनय को दृष्टि से है ।25 मुख्यतः नय के दो प्रकार हैं26-द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय । द्रव्याथिकनय की अपेक्षा ध्यान के लक्षण में आये हुए शब्दों का अर्थ--"एक" शब्द 'केवल' अथवा 'तथोदित' (शुद्ध) का वाचक है, "चिन्ता" 'अन्तःकरण की वृत्ति' का तथा "रोध" या "निरोध" नियंत्रण का वाचक है। निश्चयनय की दृष्टि से "एक" शब्द का अर्थ "शुद्धात्मा" और उसमें चित्तवृत्ति के नियंत्रण का नाम ध्यान, और "अभाव" का नाम "निरोध" है, वह दूसरी चिन्ता के विनाशरूप एकचिन्तात्मक है-चिन्ता से रहित स्वसंवित्तिरूप है। यहाँ 'चिन्ता' चिन्तनरूप है। “रोध" और "निरोध" एक ही अर्थ का वाचक है। शुद्धात्मा के विषय में स्वसंवेदन ही ध्यान है। TERSITE ३३४ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग HSHARE F E stration international www.jainel library CHI --- -- -Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31