Book Title: Bharatiya Vangamaya me Dhyan Yoga
Author(s): Priyadarshanaji Sadhvi
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 18
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ रहना, पश्चात्ताप रहित प्रवृत्ति होना, पापकार्य में खुश रहना, धर्म-विमुख होना, कुदेव - कुगुरु-कुधर्म में श्रद्धा बढ़ाना आदि । इस प्रकार रौद्रध्यान के ८ प्रकार हैं । धर्मध्यान के भेद, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा आगम कथित धर्मध्यान चार प्रकार का है" - (१) आज्ञावित्रय धर्मध्यान - (यह ) आज्ञा + विचय इन दो शब्दों के संयोग से बना है । 'आज्ञा' शब्द से 'आगम' 'सिद्धान्त' और 'जिनवचन' को लिया जाता है । ये तीनों ही शब्द एकार्थवाची हैं । 'विचय' शब्द का भाव 'विचार' विवेक' और 'विचारणा' है । अतः सर्वज्ञप्रणीत आगम पर श्रद्धा रखना । उसमें कथित प्रमाण, नय, निक्षेप, नौ तत्त्व, षट् द्रव्य, सात भंग, छजीवनिकाय आदि सवका सतत चिन्तन करना और भी अन्य सर्वज्ञग्राह्य जितने भी पदार्थ हैं उनका नय, प्रमाण, निक्षेप, अनेकान्त, स्याद्वाद दृष्टि से चिन्तन करना धर्मध्यान का प्रथम 'आज्ञाविचय' धर्मध्यान है । ( २ ) अपायविचय धर्मध्यान- रागादि क्रिया, कषायादिभाव, मिथ्यात्वादि हेतु आस्रव के पाँच कार्य, ४ प्रकार की विकथा, ३ प्रकार का गौरव ( ऐश्वर्य, सुख, रस-साता ), ३ शल्य ( माया शल्य, मिथ्यादर्शनशल्य, निदानशल्य) २२ परीषह (क्षुधा तृषा, शीत-उष्ण, दंश-मशक, नग्नत्व, अरति, स्त्री, चर्या, निपद्या, , आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, जल ( पसीना ), सत्कार - पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन) इन सभी अपायों का उपाय सोचना विचारणा ही 'अपायविचय' धर्मध्यान है । शय्या, (३) विपाकविचय धमध्यान- बँधे जाने वाले कर्मों को चार भागों में विभाजित किया जाता है, जैसे, प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनके विपाकोदय का चिन्तन करना 'विपाकविचय धर्मध्यान' है । 'विपाक' से रसोदय लिया जाता है । कर्मप्रकृति में विशिष्ट अथवा विविध प्रकार के फल देने की शक्ति को अथवा फल देने के अभिमुख होने को 'विपाक' कहते हैं । विपाक दो प्रकार का है - हेतुविपाक और रसविपाक । पुद्गलादिरूप हेतु के आश्रय से जिस प्रकृति का विपाक फलानुभव होता है वह प्रकृति हेतुविपाकी कहलाती है तथा रस के आश्रय - रस की मुख्यता से निर्दिश्यमान विपाक जिस प्रकृति का होता है वह प्रकृति रसविपाकी कहलाती है। दोनों प्रकार के विपाक के ४ -४ भेद हैं हेतुविपाकी के चार भेद हैं- पुद्गलविपाकी, क्ष ेत्रविपाकी, भवविपाकी और जीवविपाकी । रविपाकी के चार भेद हैं- एकस्थानक, द्विस्थानक, त्रिःस्थानक और चतुःस्थानक । जीवों के एक भव या अनेक भव सम्बन्धी पुण्यपाप कर्म के फल का, शुभाशुभ कर्मों के रस का उदय, उदीरणा, संक्रमण, बन्ध और मोक्ष का विचार करते हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के निमित्त से कर्मफल का चिन्तन करना ( विचार करना) एवं प्रकृति, स्थिति, रस ( अनुभाग) और प्रदेशानुसार शुभाशुभ कर्मों के विपाक ( उदय - फल ) का चिन्तवन करना 'वियाकविचय धर्मध्यान' है । ( ४ ) संस्थानविचय धर्मध्यान- 'संस्थान' का अर्थ 'संस्थिति', 'अवस्थिति', 'पदार्थों का स्वरूप' है । 'विचय' का अर्थ - चिन्तन अथवा अभ्यास है । इसमें लोक का स्वरूप, आकार, भेद, षट् द्रव्य - उनका ३४६ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग www.jainelibarang:

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