Book Title: Bharatiya Tattva Chintan me Jad Chetan ka Sambandh
Author(s): Samdarshimuni
Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf

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Page 9
________________ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ 1 क्षत्रियों में ही नहीं, पर सभी वर्गों में मांस खाने की प्रथा थी । नित्यप्रति के भोजन, सामाजिक उत्सव, धार्मिक अनुष्ठान के अवसरों पर पशु-पक्षियों का वध ऐसा ही प्रचलित और प्रतिष्ठित पा जैसा आज नारियलों और फलों का चढ़ाना। उस युग में यादव जाति के प्रमुख राजपुत्र नेमिकुमार ने एक अजीब कदम उठाया। उन्होंने अपनी शादी पर भोजन के लिए कत्ल किए जाने वाले निर्दोष पशु-पक्षियों की अति मूक वाणी से सहसा पिघलकर निश्चय किया कि वे ऐसी शादी न करेंगे जिसमें अनावश्यक और निर्दोष पशु-पक्षियों का वध होता हो उस गम्भीर निश्चय के साथ वे सबकी सुनी-अनसुनी करके बारात से शीघ्र लौट आए, द्वारिका से सीधे गिरनार पर्वत पर जाकर उन्होंने तपस्या की कौमारवय में विवाहार्थ प्रस्तुत सुन्दर राजकन्या का त्याग और ध्यान तपस्या का मार्ग अपनाकर उन्होंने उस चिर प्रचलित पशु-पक्षी वध की प्रथा पर आत्म दृष्टान्त से इतना प्रहार किया कि जिससे गुजरात भर में और गुजरात के प्रभाव वाले दूसरे प्रान्तों में मी वह प्रथा नाम शेष हो गई । वह परम्परा वर्तमान में चलने वाली पिंजरा पोलों की लोकप्रिय संस्थाओं में परिवर्तित होगई ।"" यदुकुमार नेमिनाथ के पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथ ने अहिंसा तत्त्व को विकसित करने के लिए एक दूसरा नया ही कदम उठाया । पञ्चाग्नि जैसी तामस तपस्या का खण्डन करते हुए प्रभु ने बतलाया कि वह तपस्या किसी काम की नहीं, जिसमें अनेकों सूक्ष्म व स्थूल प्राणियों के जल जाने का कोई ज्ञान ही नहीं रहता । सद्-असद् का कोई भान ही नहीं होता। ऐसी हिंसाजन्य तपस्या, तपस्या नहीं, निरा देह दण्ड है, उसमें आत्म-विकास की कोई गुंजाइश नहीं है। इतना ही नहीं, प्रभु ने जन समाज को पाखण्ड धर्म से सावधान किया और वास्तविक धर्म से परिचित करा कर जीवन के साथ उसका सम्बन्ध जोड़ा। इस प्रकार धर्मक्षेत्र में सदियों से फैले हुए अज्ञान तिमिर को दूर कर विवेक के प्रकाश से अहिंसा तत्त्व को जगमगाया । २६८ यद्यपि सर्प की घटना को लेकर भगवान् पार्श्वनाथ को कमठ तापस व उनके अनुयायियों का कोप पात्र बनना पड़ा, फिर भी उन्होंने उसकी तनिक भी परवाह नहीं की, और हिंसाजन्य अज्ञान-तप की जड़ ही उखाड़ डाली । यह भगवान् पार्श्वनाथ की अपूर्व देन है कि आज भी जैन धर्म या उससे प्रभावित क्षेत्र में सर्पों के प्रति करुणा की वर्षा बरसती हुई दिखलाई पड़ती है, मानव सर्पों को नाग देवता के रूप में पूजने लगा है । भगवान् पार्श्वनाथ के द्वारा विकसित अहिंसा की भावना ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर को विरासत में प्राप्त हुई । भगवान् महावीर और बुद्ध के युग का इतिहास तो बड़ा ही विचित्र रहा है जब भारत के धर्मक्षेत्रों में यज्ञ-यागादि के नाम पर पशुबलि और दास प्रथा के रूप में शोषण का दौर चल रहा था, स्वार्थी धर्मान्य व रस-लोलुप व्यक्ति हिंसा को विशेष प्रोत्साहित कर रहे थे। " वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति", "यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः”, “स्वर्गकामो यजेत" आदि-आदि सूत्रों का निर्माण कर धर्म के नाम पर पशुओं का बेरहमी से बच किया जाता था। इस नृशंस हिंसा को वे अहिंसा का चोगा पहना देते थे । हिंसा, अहिंसा का नकाब पहनकर खुले आम जनता के सम्मुख आने लगी। मानव के द्वारा मानव का तिरस्कार और अपमान देखकर वस्तुतः मानवता अप मानित होने लगी, वह हजार हजार आँसुओं से सिसक उठी । उस समय भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध ने अहिंसा में नये प्राण और नई चेतना का स्पन्दन भरने के लिए सम्पूर्ण मानव जाति को दया और करुणा का दिव्य सन्देश दिया। सारे समाज में अहिंसक क्रान्ति की व्यापक लहर पैदा की। इतना ही नहीं, अपने धर्म प्रवचनों में खुल्लम-खुल्ला आम प्रचलित यज्ञों का खण्डन करते हुए कहा- "धर्म का सम्बन्ध आत्मा की पवित्रता से है, मूक पशुओं का रक्त बहाने में धर्म कहाँ है ? यह तो आमूलचूल भयंकर भूल है, पाप है जब आप किसी मरते जीव को जीवन नहीं १ दर्शन और चिन्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/

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