Book Title: Bharatiya Tattva Chintan me Jad Chetan ka Sambandh
Author(s): Samdarshimuni
Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf
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जैन संस्कृति में : अहिंसा के इतिहास की सुनहरी कड़ियाँ
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दे सकते, तो उसे मारने का आपको क्या अधिकार है ? पैर में लगा जरा-सा कांटा जब हमें बेचैन कर देता है, तो जिनके गले पर छुरियां चलती हैं, उन्हें कितना दुःख होता होगा? यज्ञ करना बुरा नहीं है। वह अवश्य होना चाहिए। परन्तु ध्यान रखो कि वह विषय-विकारों के पशुओं की बलि से हो, न कि इन जीवित देहधारी मूक पशुओं की बलि से। सच्चे धर्म यज्ञ के लिए आत्मा को अग्निकूण्ड बनाओ, उसमें मन-वचन और काया के द्वारा शुभ प्रवृत्ति रूप घृत उँडेलो। अनन्तर तपअग्नि के द्वारा दुष्कर्म का ईंधन जलाकर शान्ति रूप प्रशस्त होम करो।"१
इस प्रकार भगवान महावीर ने हिंसात्मक यज्ञों का विरोध कर अहिंसा-तप आदि रूप यज्ञों का निरूपण किया तथा प्रचलित मांसाहार का सबल स्वर में घोर विरोध किया । विरोध की आवाज इतनी प्रचण्ड थी कि स्वार्थी-धर्मान्ध व्यक्ति अपने स्वार्थों पर होने वाले आघातों से आहत होकर कुछ समय के लिए कुलबुला उठे । किन्तु शान्ति के इस महान् देवदूत की एकाग्र तपस्या व उसकी अहिंसा परायण निष्ठा के सम्मुख एक दिन उन्हें नतमस्तक होना पड़ा। परिणामतः जो व्यक्ति मांस व यज्ञ प्रिय थे, उनके शुष्क हृदयों में करुणा का अजस्र-स्रोत प्रवाहित हो उठा।
भगवान महावीर और बुद्ध के पश्चात् तो अहिंसा भावना की जड़ भारत के मानस में इतनी अधिक गहरी जमी कि समस्त भारतीय धर्म का वह हार्द बन गई । तात्कालिक बड़े-बड़े प्रभावशाली ब्राह्मणों व क्षत्रियों को उसने अपनी ओर आकर्षित कर लिया। सामाजिक, धार्मिक आदि उत्सवों में भी अहिंसा ने अपना प्रभाव जमा लिया। सर्वशान्ति का साम्राज्य फैल गया। भगवान महावीर ने विश्व को जो अनेक प्रकार की देन दी हैं, उनमें यह अहिंसा सम्बन्धी देन सर्वोपरि है।
भगवान महावीर तथा बुद्ध द्वारा उपदिष्ट अहिंसा और करुणा तत्त्व को सम्राट् चन्द्रगुप्त, अशोक तथा उसके पौत्र संप्रति ने और अधिक प्रतिष्ठित एवं व्यापक बनाया, इतिहास इसका साक्षी है। कलिंग युद्ध में नर-रक्त को बहते देखकर अशोक का हृदय करुणार्द्र हो उठा, और उसने भविष्य में युद्ध न करने का संकल्प कर लिया। अशोक ने अहिंसा और करुणा के सन्देश को शिलालेखों द्वारा स्थान-स्थान पर उत्कीर्ण कराके प्रचारित किया । अशोक के पौत्र सम्राट सम्प्रति ने अहिंसा की भावना को अपने अधीन राज्यों तक ही सीमित नहीं रखा, वरन् राज्यों के सीमावर्तीप्रदेशों में भी दूर-दूर तक फैलाकर उसका प्रबल प्रचार किया। बारहवीं सदी में आचार्य हेमचन्द्र ने गुर्जरपति सिद्धराज को अहिंसा की भावना से प्रभावित कर एक बहुत बड़ा आदर्श उपस्थित किया। सिद्धराज के राज्य में जहां देवी-देवताओं के समक्ष नानाविध हिंसाएं होती थीं, वे हिसाएं सब रुक गई। सिद्धराज का उत्तराधिकारी महान् सम्राट कुमारपाल भी अहिंसा में पूर्ण निष्ठा रखता था। उसने अहिंसा भावना का जितना विस्तार किया वह इतिहास में बेजोड़ है। उनकी दयावृत्ति के लिए एक सुप्रसिद्ध जनश्र ति है कि-'कुमारपाल अपने राज्य के अश्वों को पानी भी छान-छानकर पिलाया करता था। उसकी "अमारि-घोषणा" अत्यन्त लोकप्रिय बनी, जो अहिंसा भावना की एक विशिष्ट द्योतक थी।
अहिंसा भावना के प्रचार में जहां अनेकों वरिष्ठ व्यक्तियों के हाथ अग्रसर रहे हैं, वहां निर्ग्रन्थ परम्परा के श्रमणों का भी इसमें विशेष श्रेय रहा है। वे हिमालय से कन्याकुमारी तक, अटक से कटक तक पद यात्रा करके, अनेक मुसीबतों व अनेक कष्टों को झेलकर, जन-जन को
१ तवो जोई, जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजम जोग सन्ती, होमं हणामि इसिणं पसत्थ ॥
-उत्तराध्यन सूत्र, अ० १३, गा० २४
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