Book Title: Bharatiya Tattva Chintan me Jad Chetan ka Sambandh Author(s): Samdarshimuni Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 7
________________ २६६ मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ और द्वेष के मूल में तृष्णा एवं मोह रहता ही है, इस बात को अन्य दार्शनिक भी स्वीकार करते हैं । इससे हम निस्सन्देह कह सकते हैं कि भारतीय तत्त्व चिन्तन में अविया, अज्ञान, मिध्यात्व विपर्यय, क्लेश को बन्ध का कारण माना है। जब तक आत्मा में अनात्म बुद्धि और अनात्मा में आत्म-भावना बनी रहेगी, भेद-विज्ञान के द्वारा स्व-पर के यथार्थस्वरूप का बोध नहीं होगा, तब तक संसार बन्धन से मुक्ति नहीं हो सकती। मोक्ष के कारण तृष्णा एवं मोह प्रायः सभी विचारक अज्ञान और अविद्या को बन्ध का कारण मानते हैं । को भी अविद्या का सहायक मानकर उसे भी बन्ध का हेतु मानने में सहमत हैं। परन्तु मोक्ष एवं निर्वाण के कारण तथा मुक्ति की साधना के सम्बन्ध में सभी विचारक एकमत नहीं हैं। कुछ । विचारक केवल तत्त्व-ज्ञान को हो मुक्ति का हेतु मानते हैं और कुछ सिर्फ क्रिया काण्ड को ही मोक्ष का मूल कारण स्वीकार करते हैं तथा कुछ विचारक दोनों की समन्वित साधना को ही मोक्ष मार्ग मानते हैं। उपनिषद् में तत्त्वज्ञान को, ब्रह्म-ज्ञान को तथा आत्म-ज्ञान को ही मोक्ष का हेतु माना है । कर्म-काण्ड एवं उपासना को गौण स्थान दिया है । वेद विहित कर्म-काण्ड एवं यज्ञ-ज्ञाग को तो स्पष्ट शब्दों में संसार का कारण कहकर उनकी उपेक्षा की है । बौद्ध दर्शन, न्याय-वैशेषिक, सांख्य योग और शांकर वेदान्त (अद्वैतवाद) में भी तत्त्व- ज्ञान को मुख्य कारण माना है, और उपासना को गौण माना है। ब्रह्म सूत्र के भाष्यकार आचार्य रामानुज, निम्बार्क, मध्य, वल्लम आदि भक्ति-सम्प्रदाय के प्रवर्तक भगवान की भक्ति को ही मुक्ति का श्रेष्ठतम साधन मानते हैं, तत्त्वज्ञान को गोण साधन मानते हैं। आचार्य भास्कर और शैवज्ञान और कर्म दोनों को मुक्ति का मार्ग मानते हैं। पूर्वमीमांसा मुख्य रूप से क्रिया-काण्ड प्रधान है। वह वेद विहित कर्म-काण्ड, यज्ञ-याग आदि वैदिक क्रियाओं को ही मुक्ति का हेतु मानते हैं, तत्व-ज्ञान को नहीं गीता में ज्ञान, भक्ति और कर्म — तीनों को मोक्ष का कारण स्वीकार किया है। इसमें अनासक्ति योग पर अधिक बल दिया है। कर्म करो, परन्तु फल की इच्छा मत रखो यही गीता का अनासक्ति योग है । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । जैन दर्शन न एकान्त रूप से तत्वज्ञान से न एकान्त रूप से कर्मयोग ( चारित्र) से और न एकान्त रूप से भक्ति-योग (श्रद्धा) से मुक्ति मानता है उसका दृढ़ विश्वास है कि सम्यक् ज्ञान, । सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र अथवा सम्यक् ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग की समन्वित साधना से ही आत्मा बन्धन से मुक्त हो सकता है। बौद्ध परम्परा में इसके लिए प्रज्ञा, शील और श्रद्धा शब्दों का प्रयोग मिलता है। जैन परम्परा में इन तीनों को त्रिरत्न या रत्नत्रय कहा है और इनकी अलग-अलग की गई साधना को नहीं, प्रत्युत समन्वित साधना को रत्नत्रय आत्मा का स्वभाव है, अतः इनकी पूर्णता को प्रकट करना अथवा मोक्ष है । मोक्ष मार्ग कहा है।" निरावरण होना ही १ Jain Education International , ― For Private & Personal Use Only -तस्वार्थसूत्र ११ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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