Book Title: Bharatiya Darshan ke Sandarbh me jain Mahakavyo dwara Vivechit Author(s): Mohanchand Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 2
________________ औपनिषदिक दार्शनिक चिन्तन वैदिक मंत्र द्रष्टा की उपर्युक्त दार्शनिक खोज के साथ ही भारतीय दर्शन का युक्तिसंगत चिन्तन प्रारम्भ होता है। उपनिषद्-काल के चिन्तकों ने वैदिक पुरुषवाद का ही विकास करते हुए ब्रह्मद' आत्मवाद' तथा जगत् सम्बन्धी मायावाद' आदि मान्यताओं को दार्शनिक ली में प्रस्तुत किया। परन्तु वैदिक एवं औपनिषदिक चिन्तन परम्परा के अतिरिक्त कुछ प्रतिद्वन्द्वी अन्य दार्शनिकों ने भी जगत् तथा उसके मूल कारण के सम्बन्ध में अपनी-अपनी मान्यताएं स्थापित कर रखी थीं । औपनिषदिक विचारकों के साथ सर्वप्रथम इनका टकराव हुआ, जिसकी पुष्टि 'श्वेताश्वतरोपनिषद्' से होती है। यह उपनिषद् यह उल्लेख करता है कि वैदिक परम्परा के ब्रह्मवाद के सन्दर्भ में कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद आदि अन्य दार्शनिक मान्यताएं भी उस समय प्रचलित हो चुकी थीं जो क्रमशः काल, स्वभाव, नियति यदृच्छा, भूत आदि को सृष्टि का मूल कारण स्वीकार करती थीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि उपनिषद्-काल में ही भारतीय दर्शन की मुख्य चिन्तन-समस्या यह रही थी कि सृष्टि के निर्माण में किसी व्यक्त या अव्यक्त चेतन की सत्ता को स्वीकार किया जाए अथवा फिर काल, स्वभाव अथवा भौतिक पदार्थों द्वारा सीधे ही सृष्टि निर्माण की संभावना कर ली जाए। जहां तक युक्तिपरकता का प्रश्न है, दोनों प्रकार की संभावनाएं सबल जान पड़ती हैं, परन्तु कतिपय सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के बिखराव के कारण वैदिक पुरुषवाद की मान्यता को कुछ धक्का भी लगा । वैदिक कर्मकाण्डों में होने वाली हिंसा तथा पौरोहित्यवाद जैसी सामाजिक कुरीतियों के कारण अनेक वेदविरोधी शक्तियां सक्रिय हो चुकी थीं वेद-समर्थक एवं वेद-विरोधी दार्शनिकों ने एक-दूसरे पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप भी किए जिसका एक मुख्य परिणाम यह निकला कि भारतीय दर्शन सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। परवर्ती काल में इन दार्शनिक सम्प्रदायों को दो मुख्य वर्गों में रखने की परम्परा भी प्रकट हुई। नास्तिको वेदनिन्दकः - ( मनुस्मृति, २.११ ) के आधार पर जैन, बौद्ध एवं चार्वाक 'नास्तिक' दर्शनों के वर्ग में रख दिए गए और शेष मौलिक परम्परा से सम्बद्ध दर्शनों को 'आस्तिक' की संज्ञा प्राप्त हुई । इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि आठवीं शताब्दी ईस्वी के जैन दार्शनिक हरिभद्र सूरि उपर्युक्त वर्गीकरण से असहमत होते हुए जैन एवं बौद्ध दर्शनों को भी मूल दर्शन स्वीकार करते हैं। दसवीं शताब्दी ई० में सोमदेवाचार्य द्वारा वेदों को प्रमाण मान लेने की जिस जैन मान्यता का समर्थन किया गया है, उससे भी यह तर्क निर्बल पड़ जाता है कि जैन दर्शन को वेद-विरोधी होने के कारण 'नास्तिक' संज्ञा दी जाए। सच तो यह है कि आस्तिक माने जाने वाले सांख्य वेदान्त आदि दर्शन भी अपनी तत्त्व-मीमांसा के मूल्य पर वेदों के आप्तत्व की रक्षा कर पाये हों, संदिग्ध जान पड़ता है। सांख्य दर्शन में वैदिक वचनों तथा वैदिक उपायों द्वारा आत्यन्तिक दुःख-निवृत्ति हेतु असमर्थता व्यक्त की गई है।" इसी प्रकार शंकराचार्य आदि सिद्धान्ततः यह स्वीकार करते हैं कि कर्मकाण्डपरक वैदिक मंत्रों की सार्थकता केवल अज्ञानी एवं कर्मवादी मनुष्यों के लिए ही है, ज्ञान-मार्गी मुमुक्षु के लिए नहीं । निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि वेद को प्रमाण मानना अथवा न मानना विभिन्न दर्शनों के वर्गीकरण का कोई युक्तिसंगत आधार नहीं है। पं० दलसुख मालवणिया का विचार है कि भारतीय दर्शन की वैदिक परम्परा यज्ञ क्रिया के चारों ओर चक्कर काटती जान पड़ती है तथा वह देवों के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाती है, जिसका यह परिणाम हुआ कि दार्शनिक विकास क्रम में मीमांसक विचारधारा का जन्म हुआ जो यज्ञादि कर्म से उत्पन्न होने वाले 'अपूर्व' नाम के पदार्थ की कल्पना करती हुई देवों के स्थान पर अदृष्ट कर्म को महत्त्व देती है ।" पं० मालवणिया जी के अनुसार जैन परम्परा प्राचीन काल से ही देववाद का विरोध करती आई है तथा कर्मवाद का १. छान्दोग्योपनिषद्, ३. १४.१; बृहदारण्यक, २/५/१६, ४/४/५, ४ / ५ / ६ २. ठोपनिषद्, १/२/२३ केनोपनिषद्, १/४/६ प्रश्नोपनिषद् २/२ ३. श्वेताश्वतरोपनिषद्, १/३; ईशावास्योपनिषद्, १ ४. “कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या ।" श्वेताश्व०, १/२ ५. उमेश मिश्र : भारतीय दर्शन, पृ० १७ ६. "बोद्ध नैयायिक सांख्यं जैनं वैशेषिकं तथा । जैमिनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो।", षड्दर्शनसमुच्चय, ३ सम्पा० महेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, १६७० ७. "द्रौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिक:, पारलौकिक: ", "श्रुतिर्वेदमिह प्राहुर्धर्मशास्त्रं स्मृतिर्मता ।" यशस्तितिलक चम्पू, पु० २७३,७८ ८. सांख्य दर्शन, ८, ६; सांख्यकारिका, २ पर गौडपादभाष्य ६. " अथेतरस्यानात्मज्ञतयात्मग्रहणाशक्तस्येदमुदिशति मन्त्रः ।" " पूर्वेण मन्त्रेण ससन्न्यासज्ञाननिष्ठोक्ता द्वितीयेन तदशक्तस्य कर्मनिष्ठतेत्युच्यते ।" ईशावास्योपनिषद्, २ पर शांकरभाष्य १०. दलसुख मालवणिया श्रात्ममीमांसा, बनारस, १९५३, पृ० ८२-८३ : १५२ Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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