Book Title: Bharatiya Darshan ke Sandarbh me jain Mahakavyo dwara Vivechit
Author(s): Mohanchand
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 1
________________ भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में जैन महाकाव्यों द्वारा विवेचित मध्यकालीन जैनेतर दार्शनिक वाद डॉ. मोहनचन्द वेद मूलत: दार्शनिक ग्रन्थ नहीं हैं परन्तु भारतीय दर्शन की मूल समस्या-जगत्, उसके निर्माता एवं उसके कार्य-कारण की खोजका प्रारम्भिक इतिहास सर्वप्रथम वेद में ही उपलब्ध होता है। वैदिक मंत्र-द्रष्टा अग्नि-साधना तथा देवोपासना की धार्मिक गतिविधियों में केन्द्रित रहता हुआ भी दार्शनिक दृष्टि से जगत् एवं उसके निर्माता की खोज करने के प्रति विशेष सावधान है । वह नाना प्रकार की आलंकारिक कल्पनाओं द्वारा सृष्टि के रहस्य तक पहुंचना चाहता है। वह पूछता है कि भला वह कौन सा वृक्ष होगा जिससे पृथ्वी और आकाश बने ?' यज्ञानुष्ठान करते हुए भी वह इस जिज्ञासा को नहीं छोड़ पाता है कि जिससे वह जान सके कि घृत, समिधा आदि हवन-सामग्री उसे किस मूल स्रोत से प्राप्त हुई होंगी। अग्नि, इन्द्र, सोम, वरुण, त्वष्टा आदि जिस किसी देव की स्तुति करने आदि का उसे अवसर मिला है, वह सृष्टि-निर्माता के रूप में ही उनके महत्त्व को उभारना चाहता है। परन्तु वैदिक चिन्तक अभी भी सृष्टि के रहस्य को नहीं समझ पाया । अन्ततोगत्वा वैदिक चिन्तक को एक शुद्ध दार्शनिक दृष्टिकोण द्वारा सृष्टि के मूल की खोज करनी पड़ी । सर्वप्रथम उसे ऐसा आभास हुआ कि सृष्टि से पूर्व न तो सत् था और न ही असत् । फिर उसने पाया कि कुछ भौतिक तत्त्व सृष्टि से पूर्व भी रहे थे। इस अनुसंधान की प्रक्रिया में उसे 'एक' ऐसा तत्त्व भी मिल गया जो अव्यक्त रूप से चेतन था परन्तु 'तपस्' की सहायता से सृष्टि की रचना कर सकता था। वैदिक चिन्तक की इस दार्शनिक उपलब्धि ने उसे और आगे सोचने के लिए विवश किया तथा 'हिरण्यगर्भ' के रूप में सृष्टि-निर्माता का एक दूसरा सूत्र भी उसके हाथ लग गया। उसे अब यह भी अहसास हो चुका था कि जिन नाना देव-शक्तियों की विश्व-निर्माता के रूप में वह पहले आराधना करता आया है, वह व्यर्थ था। हिरण्यगर्भ के रूप में उसे एक ही शक्ति मिल चुकी थी जो उसका सर्वशक्तिमान आराध्य देव भी था और साथ ही वास्तविक सृष्टि का निर्माता भी। दार्शनिक चिन्तन की उड़ान अब अपनी दिशा ले चुकी थी तथा इसी प्रक्रिया में उसे एक 'सहस्रशीर्ष' पुरुष का दर्शन हुआ, जो उसकी आकृति से भी मिलता-जुलता था, किन्तु वह अत्यन्त विराट रूप वाला था, जिसके हजार सिर तथा हजार हाथ-पांव भी थे। वैदिक चिन्तक अब पूरी तरह से विश्वस्त हो चुका था कि ऐसा विराट् पुरुष ही इतने बड़े जगत् का निर्माण कर सकता है। १. "कि स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षः ।" ऋग्वेद, १०/३१/७ २. द्रष्टव्य-देवराज : पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, लखनऊ; १९५१, पृ० ४६ ३. द्रष्टव्य-उमेश मिश्र : भारतीय दर्शन , लखनऊ, (चतुर्थ संस्करण), १९७५, पृ० ३५ ४. ' नासदासीन्नो सदासीत् तदानीम् ।" ऋग्वेद, १०/१२६/१ ५. "तम आसीत् तमसा गलहमनेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।", ऋग्वेद, १०/१२६/३ ६. "आनीदवातं स्वधया तदेकं ।"..""तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत् ।" "तपस्तन्महिनाजायतकम् ।" ऋग्वेद, १०/१२६/२-३ ७. द्रष्टव्य-ऋग्वेदोक्त हिरण्यगर्भसूक्त, १०/१२१ ८. "ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।" ऋग्वेद, १०/१२१/७ ६. द्रष्टव्य, ऋग्वेदोक्त पुरुषसूक्त, १०/६० १०. "एताबानस्य महिमाऽतो ज्यायाँश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि निपादस्यामृतं दिवि ॥" ऋग्वेद, १०/६०/३ जैन दर्शन मीमांसा १५१ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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