Book Title: Bharatiya Chintan me Moksha aur Mokshmarg Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 8
________________ २६६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० LUNAS URETIRITTLY INTTTTTTTTTT कोई यह कहे कि पहले अग्नि कहाँ थी तो यह नहीं कहा जा सकता वैसे ही विशुद्ध मन से निर्वाण का साक्षात्कार होता है किन्तु उसका स्थान बताना सम्भव नहीं है। राजा ने पुनः प्रश्न किया-हम यह मान लें कि निर्वाण का नियत स्थान नहीं है, तथापि ऐसा कोई निश्चित स्थान होना चाहिए जहाँ पर अवस्थित रहकर पुद्गल निर्वाण का साक्षात्कार कर सके । आचार्य ने उत्तर देते हुए कहा-राजन् ! पुद्गल शील में प्रतिष्ठित होकर किसी भी आकाश प्रदेश में रहते हुए निर्वाण का साक्षात्कार कर सकता है। जैनदर्शन जैनदर्शन की दृष्टि से आत्मा का मूल स्वभाव ऊर्ध्वगमन है ।३१ जब वह कर्मों से पूर्ण मुक्त होता है तब वह ऊर्ध्वगमन करता है और ऊर्ध्वलोक के अग्रभाग पर अवस्थित होता है क्योंकि आगे धर्मास्तिकाय का अभाव है अत: वह आगे जा नहीं सकता । वह लोकाग्रवर्ती स्थान सिद्ध शिला के नाम से विश्रत है। जैन साहित्य में सिद्धशिला का विस्तार से निरूपण है, वैसा निरूपण अन्य भारतीय साहित्य में नहीं है। एक बात स्मरण रखनी चाहिए कि जैन दृष्टि से मानव लोक ४५ लाख योजन का माना गया है तो सिद्ध क्षेत्र भी ४५ लाख योजन का है। मानव चाहे जिस स्थान पर रहकर साधना के द्वारा कर्म नष्ट कर मुक्त हो सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष आत्मा का पूर्ण विकास है और पूर्ण रूप से दुःख-मुक्ति है । मोक्षमार्ग अब हमें मोक्षमार्ग पर चिन्तन करना है । जिस प्रकार चिकित्सा पद्धति में रोग, रोगहेतु, आरोग्य और भैषज्य इन चार बातों का ज्ञान परमावश्यक ३२ वैसे ही आध्यात्मिक साधना पद्धति में (१) संसार, (२) संसार हेतु, (३) मोक्ष, (४) मोक्ष का उपाय, इन चार का ज्ञान परमावश्यक है। वैदिक परम्परा का वाङ्मय अत्यधिक विशाल है। उसमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा प्रभृति अनेक दार्शनिक मान्यतायें हैं। किन्तु उपनिषद् एवं गीता जैसे ग्रन्थरत्न हैं जिन्हें सम्पूर्ण वैदिक परम्पराएँ मान्य करती हैं। उन्हीं ग्रन्थों के चिन्तन-सूत्र के आधार पर आचार्य पतंजलि ने साधना पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उसमें हेय३४, हेयहेतु३५, हान३६ और हानोपाय३७ इन चार बातों पर विवेचन किया है। न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन ने भी इन चार बातों पर संक्षेप में प्रकाश डाला है।३८ तथागत बुद्ध ने इन चार सत्यों को आर्यसत्य कहा है। (१) दुःख (हेय), (२) दुःखसमुदय (हेयहेतु) (३) दुःखनिरोध (हान), (४) दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद् (हानोपाय)३६ । जैनदर्शन ने इन चार सत्यों को (१) बन्ध, (२) आस्रव, (३) मोक्ष (४) और संवर के रूप में प्रस्तुत किया है। __बंध-शुद्ध चैतन्य के अज्ञान से राग-द्वेष प्रभृति दोषों का परिणाम है, इसे हम हेय अथवा दुःख भी कह सकते हैं। आस्रव का अर्थ है जिन दोषों से शुद्ध चैतन्य बंधता है या लिप्त होता है इसे हम हेयहेतु या दुःखसमुदय भी कह सकते हैं। मोक्ष का अर्थ है-सम्पूर्ण कर्म का वियोग । इसे हम हान या दुःखनिरोध कह सकते हैं। संवर-कर्म आने के द्वार को रोकना यह मोक्षमार्ग है । इसे हम हानोपाय या निरोधमार्ग भी कह सकते हैं। सामान्य रूप से चिन्तन करें तो ज्ञात होगा कि सभी भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं ने चार सत्यों को माना है। संक्षेप में चार सत्य भी दो में समाविष्ट किये जा सकते हैं (१) बंध-जो दुःख या संसार का कारण है और (२) उस बंध को नष्ट करने का उपाय । प्रत्येक आध्यात्मिक साधना में संसार का मुख्य कारण अविद्या माना है । अविद्या से ही अन्य राग-द्वेष, कषाय-क्लेश आदि समुत्पन्न होते हैं । आचार्य पतंजलि ने अविद्या, अस्मिता, रागद्वेष और अभिनिवेश इन पांच क्लेशों 00088 DO mvameducationtemationnainPage Navigation
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