Book Title: Bal Diksha Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 4
________________ ४१ परिव्राजक आदि अनेक संघ चारों ओर देश भर में फैले हुए शास्त्रों में देखते हैं । आध्यात्मिक धर्म-संघों में तेजस्वी, देशकालज्ञ और विद्वान् गुरुओं के प्रभासे आकृष्ट होकर अनेक मुमुक्षु ऐसे भी संघ में आते थे और दीक्षिन होते थे कि जो उम्र में ६, १० वर्षके भी हों, बिलकुल तरुण भी हों, विवाहित भी हों। इसी तरह अनेक मुमुक्षु स्त्रियाँ भी भिक्षुणी संघ में दाखिल होती थीं, जो कुमारी, तरुणी और विवाहिता भी होती थीं। भिक्षुणी संघ केवल जैन परम्परामें ही नहीं रहा है बल्कि बौद्ध, सांख्य, आजीवक आदि अन्य त्यागी परम्परात्रों में भी रहा है । पुराने समय में किशोर, तरुण, और प्रौढ़ स्त्री-पुरुष भिक्षु संघ में प्रविष्ट होते थे, यह बात निःशंक है । बुद्ध, महावोर आदिके बाद भी भिक्षु भिक्षुणियोंका संघ इसी तरह बढ़ता व फैलता रहा है और हजारोंकी संख्या में साधु-साध्वियोंका अस्तित्व पहलेसे आजतक बना भी रहा है। इसलिए यह तो कोई कह ही नहीं सकता और कहता भी नहीं कि बाल-दीक्षा की प्रवृति कोई नई वस्तु है, परम्परा सम्मत नहीं है, और पुरानी नहीं है । दीचा उद्देश्य अनेक हैं । इनमें मुख्य तो श्रात्मशुद्धि की दृष्टिसे विविध प्रकारकी साधना करना ही है । साधनात्रों में तपकी साधना, विद्याकी साधना, ध्यान योग की साधना इत्यादि अनेक शुभ साधनाओं का समावेश होता है जो सजीव समाज के लिये उपयोगी वस्तु है । इसलिए यह तो कोई कहता ही नहीं कि दीक्षा अनावश्यक है, और उसका वैयक्तिक जीवनमें तथा सामाजिक जीवन में कोई स्थान ही नहीं । दीक्षा, संन्यास तथा अनगार जीवनका लोकमानस में जो श्रद्धापूर्ण स्थान है उसका आधार केवल यही है कि जिन उद्देश्योंके लिये दीक्षा ली जानेका शास्त्र में विधान है और परम्परामें समर्थन है, उन उद्देश्यों की दीक्षा के द्वारा सिद्धि होना । अगर कोई दीक्षित व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, इस पंथका हो या अन्य पंथका, दीक्षाके उद्देश्योंकी साधना में ही लगा रहता है और वास्तविक रूप में नए-नए क्षेत्र में विकास भी करता है तो कोई भी उसका बहुमान किए बिना नहीं रहेगा । तब आज जो विरोध है, वह न तो दीच्चाका है और न दीक्षित व्यक्ति मात्रका है । विरोध है, तो केवल अकालमें दी जानेवाली दीक्षा का । जब पुराने समय में और मध्यकालमें बालदीक्षाका इतना विरोध कभी नहीं हुआ था, तब आज इतना प्रबल विरोध वे ही क्यों कर रहे हैं जो दीचाकों आध्यात्मिक शुद्धिका एक अंग मानते हैं और जो दीक्षित व्यक्तिका बहुमान भी करते हैं । यही श्राजके सम्मेलनका मुख्य विचारणीय प्रश्न है । 1 अब हम संक्षेप में कुछ पुराने इतिहासको तथा वर्तमान कालकी परिस्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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