Book Title: Bal Diksha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ ४४ दीक्षाने कोई विकास नहीं किया है । केवल देह-दमन और बाह्य तप ही अभिमानकी वस्तु हो तो इस दृष्टिसे भी जैन साधु-साध्धियाँ जैनेतर तपस्वी बाबाओंसे पीछे ही हैं। जैनेतर परम्परामें कैसा कैसा देह-दमन और विवध प्रकारका बाह्य तप प्रचलित है ! इसे जानने के लिए हिमालय, विन्ध्याचल, चित्रकूट आदि पर्वतोंमें तथा अन्य एकांत स्थानोंमें जाकर देखना चाहिए। वहाँ हम आठपाठ, दस-दस हजार फीटकी ऊँचाईपर बरफकी वर्षा में नङ्गे या एक कोपीनधारी खाखी बाबाको देख सकते हैं । जिसने वर्तमान स्वामी रामदासका जीवन पढ़ा है, उनका परिचय किया है, यह जैन साधु-साध्वियों के बाह्य तपको मृद्ध ही कहेगा। इसलिए केवल तपकी यशोगाथा गाकर जो श्रावक-श्राविकाओंको धोखेमें रखते हैं वे खुद अपनेको तथा तप-परम्पराको धोखा दे रहे हैं। तप बुरा नहीं, वह आध्यात्मिक तेजका उद्गम स्थान है, पर उसे साधनेकी कला दूसरी है जो अाजकलका साधुगण भूल-सा गया है। दीक्षाका खासकर बाल-दीक्षाका महान् उद्देश्य आध्यात्मिकताकी साधना है। इसमें ध्यान तथा योगका ही मुख्य स्थान है। पर क्या कोई यह बतला सकेगा कि इन जैन दीक्षितोंमेंसे एक भी साधु या साध्वी ध्यान या योग की सच्ची प्रक्रियाको स्वल्प प्रमाणमें भी जानता है ? प्रक्रियाकी बात दूर रही, ध्यान-योग संबन्धी सम्पूर्ण साहित्यको भी क्या किसीने पढ़ा तक है ? श्री अरविन्द, महर्षि रमण आदिके जीवित योगाभ्यासकी बात नहीं करता पर मैं केवल जैन शास्त्रमें वर्णित शुक्ल ध्यानके स्वरूपकी बात करता हूँ। इतनी शताब्दियों का शस्ल ध्यान संबन्धी वर्णन पढ़िए । उसके जो शब्द ढाई हजार वर्ष पहले थे, वही आज हैं। अगर गुरू ही ध्यान तथा योगका पूरा शास्त्रीय अर्थ नहीं जानता, न तो वह उसकी प्रक्रियाको जानता है, तो फिर उसके पास कितने ही बालक-बालिकाएँ दीक्षित क्यों न हों; वे ध्यान-योगके शब्दका उच्चार छोड़कर क्या जान सकेंगे? यही कारण है कि दीक्षित व्यक्तियोंका श्राध्यात्मिक व मानसिक विकास रुक जाता है। इस तरह हम शास्त्राभ्यास, तात्त्विक त्यागाभ्यास या ध्यान-योगाभ्यासकी दृष्टि से देखते हैं तो जैन त्यागियोंकी स्थिति दयनीय अँचती है । गुरू-गुरूशियोंकी ऐसी स्थितिमें छोटे-छोटे बालक-बालिकाओंकों आजन्म नवकोटि संयम देनेका समर्थन करना, इसे कोई साधारण समझदार भी वाजिब न कहेगा। बाल-दीक्षाकी असामयिकता और घातकताके और दो खास कारण हैं, जिनपर विचार किए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता । पुराने युगमें जैन गुरू वर्गका मुख अरण्य, वन और उपवनकी ओर था, नगर शहर अादिका अव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11