Book Title: Ayurved Jagat me Jainacharyo ka Karya Author(s): Vardhaman Parshwanath Shastri Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 8
________________ आयुर्वेद जगत् में जैनाचार्यों का कार्य पूज्यपाद के बाद के वैद्यक ग्रंथकार पूज्यपाद के बाद गोम्मटदेव मुनि नामक ग्रंथकर्ता हुए हैं। इन्होंने आयुर्वेद विषयक मेरुतन्त्र नामक ग्रन्थ की रचना की है । अपने ग्रंथ में उन्होंने प्रत्येक परिच्छेद के अंत में आचार्य पूज्ययाद का आदर के साथ स्मरण किया है। सिद्ध नागार्जुन कहा जाता है कि यह पूज्यपाद के भानजे थे । इन्होंने नागार्जुन कल्प, नागार्जुन कक्षपुट आदि वैद्यक ग्रंथों का निर्माण किया था। इसके अलावा इन्होंने 'वज्रखेचर घुटिका' नाम की सुवर्ण बनाने की मणि तयार की थी। यह मणि अनर्घ्य व बहुमूल्य साध्य थी, इसलिए इस मणि की सिद्धि के लिए राजासे सहायता की अपेक्षा की। राजाने पूछा कि सिद्ध न होने पर क्या होगा ? तब नागार्जुन ने धैर्य के साथ कहा कि यदि मणि सिद्ध नहीं हुई तो मेरी दोनों आखों को निकलवा दीजियेगा, राजाने मंजूर कर विपुल धनराशि इसके लिए दी और कई महिनों की अवधी दी। करीब बारह महिनों बाद यह रत्न सिद्ध हुआ। गुटिका के रूपमें स्थित उस मणिपर नागार्जुन ने अपने नामकी मुद्रा लगाई और उन मणियों को नदी के पानी से धो रहे थे कि हाथ से फिसलकर नदी में तीनों मणियां गिरी, मछलीने निगलली, वह मछली एक वेश्या के हाथ पडी, चीरने पर ये तीनों रत्न मिले । हर्षित होकर वह वेश्या अपने दिवानखाने के झूलेपर ले जाकर उन रत्नों को रखा तो झूलेकी लोह शृंखला सुवर्ण की बन गई । इधर राजा ने प्रतिज्ञा के अनुसार नागार्जुन की आंखें निकलवाई । नागार्जुन अंधे होकर अब देशांतर चले गये । उधर वेश्या ने रोज लोहे को सोना बनाना प्रारंभ किया। पर्वतप्राय सुवर्ण से वह क्या करती ? अनकों अन्नछत्रादिकों को निर्माण कर करोडों मुद्रा ओंका व्यय किया, रत्नों पर नागार्जुनका नाम देखकर, उन अन्नसत्रों का नाम भी नागार्जुन अन्नसत्र रखा गया । नागार्जुन विहार करते करते जब वहां आये तो उन्हों ने नागार्जुन अन्नसत्र को सुनकर इस नाम का कारण क्या है यह पूछा । सारी बातें वेश्या से मालुम होगई । पुनश्च उन रत्नों को वेश्या से प्राप्त किया, उसीके प्रभाव से गई हुई नेत्रों को पुनः प्राप्त किया। राजसभा में पहुंचकर उन मणियों के चमत्कार को पुनः बताया। यह सब लिखने का प्रयोजन यह है कि आयुर्वेद के प्रयोगों में अपरिमित महत्त्व है । उसके लिए सतत अध्यवसाय की आवश्यकता है। उग्रादित्याचार्य पूज्यपाद के अनन्तर आयुर्वेद ग्रंथकार जो हुए हैं उनमें श्री महर्षि उग्रादित्याचार्य का नाम बहुत आदर के साथ लिया जा सकता है। उन्होंने कल्याणकारक नामक महत्त्वपूर्ण वैद्यक ग्रंथ की रचना की है। यह ग्रंथ करीब ५००० श्लोक प्रमाण से युक्त है। जैनाचार्य परम्परा के अनुसार ही इसमें भी किसी भी औषध प्रयोग में मद्य, मांस, मधु का प्रयोग नहीं किया गया है । इस ग्रंथ में पच्चीस परिच्छेद हैं। पच्चीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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