Book Title: Ayurved Jagat me Jainacharyo ka Karya Author(s): Vardhaman Parshwanath Shastri Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 9
________________ ३५६ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ परिच्छेदों में विभक्त ग्रंथ में विभिन्न रोग, प्राप्ति, निदान, पूर्वरूप, चिकित्सा आदि का सुन्दर क्रम से वर्णन किया गया है। हजारों रोगों की चिकित्सा का प्रतिपादन इस ग्रन्थ में है । भिन्न भिन्न अधिकारों का विभाग कर विषयवर्णन किया गया ८ वें शतमान के माने हुए आयुर्वेद के उग्रादित्याचार्य के द्वारा निर्मित इस ग्रंथ की जैनेतर विद्वानों ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है । वैद्यपंचानन पं. गुणे शास्त्री ने रस ग्रंथ पर विस्तृत प्रस्तावना लिखकर इस ग्रंथ का परमादर किया है । आयुर्वेद संबंधी विषयों से परिपुष्ट महत्त्वपूर्ण कृति जो उपलब्ध हुई है वह कल्याणकारक है, जैनाचार्य उग्रादित्य के द्वारा विरचित है, जो राष्ट्रकूट राज्य के राजा अमोघवर्ष प्रथम और चालुक्य नरेश कलिविष्णुवर्धन पंचम के समकालीन थे । ग्रंथ का प्रारंभ आयुर्वेद तत्त्व के प्रतिपादन के साथ हुआ है, जो दो विभागों से विभक्त है, एक रोगप्रतिकार - दूसरा चिकित्सा प्रयोग । अंत के परिशिष्ट में एक लंबा परिसंवाद संस्कृत गद्य में दिया गया है जिसमें मांसाशन वगैरे की निस्सारता व अनावश्यकता को बताया गया है । यह भी कहा गया है कि यह परिसंवाद ग्रंथकार के द्वारा राजा अमोघवर्ष के दरबार में सेकड़ों विद्वान व वैद्यों की उपस्थिति में सिद्ध किया गया था । इतना लिखने के बाद उग्रादित्याचार्य के विषय में या उनके ग्रंथ के विषय में अधिक लिखने की आवश्यकता है ऐसा हमें प्रतीत नहीं होता, उनके द्वारा विरचित ग्रंथ से ही विशेष प्रकाश पड सकता है । इसी प्रकार मल्लिषेण सूरि ने अपने विद्यानुशासन आदि मंत्र शास्त्रों में भी आयुर्वेद चिकित्सा का निरूपण किया है । मंत्र शास्त्र और आयुर्वेद शास्त्र का बहुत निकट संबंध था । इसलिए भैरव पद्मावती कल्प, ज्वालामालिनी कल्प आदि मंत्र शास्त्रों में भी यत्र तत्र आयुर्वेद के प्रयोगों का उल्लेख मिलता है । आयुर्वेद विद्वान् को अपने शास्त्र में प्रवीण होने के लिए मंत्र, तंत्र, शकुन, निमित्त आदि शास्त्रों का भी अध्ययन करना चाहिये, रोगीयों की रोग परीक्षा के लिए सर्व दृष्टि से प्राप्त ज्ञान सफल सहायक हो सकता है, इसे नहीं भूलना चाहिये, अतः पूर्वाचार्यों ने आयुर्वेद के साथ अन्य ग्रंथ में का भी अध्ययन मनन किया है । महर्षि उग्रादित्याचार्य ने सुश्रुताचार्य को स्याद्वादी के नाम से उल्लेख किया है, सुश्रुत ग्रंथ में जो चिकित्सा क्रम बताया गया है उसमें प्रायः सभी प्रयोग जैन प्रक्रिया से मिलते जुलते हैं, इसलिए उन्हें ग्रंथकार ने स्याद्वादी के नाम से उल्लेख किया हों, या यह भी हो सकता है कि सुश्रुताचार्य जैनाचार्य हों, पूज्यपाद के शल्यतंत्र का अनुकरण कर उन्हों ने ग्रंथरचना की हो, यह सब सूक्ष्म अनुसंधान करने पर ज्ञात हो सकते हैं । तथापि यह निस्संदिग्ध कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों का इस शास्त्र पर अद्वितीय अधिकार था एवं उनकी कृतियों का इस जगत् के अन्य ग्रंथ निर्माताओं के ग्रंथों में भी अमिट प्रभाव था । उस प्रभाव से ये ग्रंथकार अपने को बचा नहीं सकते थे । कन्नड भाषा के जैन वैद्यक ग्रंथकर्ता जिस प्रकार संस्कृत में वैद्यक ग्रन्थों की रचना अपने बहुमूल्य समय को निकालकर जैनाचार्यों ने की है उसी प्रकार अन्यान्य भाषाओं में भी वैद्यक ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। तेलगू और तामिल भाषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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