Book Title: Ayurved Jagat me Jainacharyo ka Karya Author(s): Vardhaman Parshwanath Shastri Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 6
________________ आयुर्वेद जगत् में जैनाचार्यों का कार्य ३५३ का निवास का अर्थात् भटकल के पास होन्नावर तालुका में यह गेरसष्पा स्थान है। वहां पर उनका पीठ था, इसलिए उनका निवास वहां कहा गया है। अपने ग्रन्थ में 'रसेंद्र जैनागमसूत्रबद्धं' यह कहकर समंतभद्र ने अपने अन्य को पूर्व ग्रन्थों के सूत्रों का अनुकरण सिद्ध किया है, इससे समंतभद्र के पहिले भी जैन वैद्यक ग्रन्थों के निर्माता हुए हैं। और वे भटकल जिल्हा के होन्नावर के पास हाडुहल्ली (संस्कृत में संगीतपुर ) के रहनेवाले थे, वहां पर उन्होंने अनेक वैद्यक ग्रन्थों की रचना की है। समंतभद्र को भी इसी कारण से वैद्यक ग्रन्थ निर्मिति की प्रेरणा मिली होगी। पुष्पायुर्वेद जैनधर्म अहिंसा प्रधान धर्म होने से महाव्रतधारी मुनियों ने इस बात का भी प्रयत्न किया कि औषध निर्माण के कार्य में किसी भी जीव का घात न हो, किसी को भी पीडा नहीं पहुंचनी चाहिये, एकेंद्रिय प्राणियों का भी बुद्धिपुरस्सर घात न हो इस का भी ध्यान रखा गया है। अतः पुष्पायुर्वेद ग्रन्थ का निर्माण किया गया। ____ आयुर्वेद ग्रंथकारोंने जिस प्रकार वनस्पतियों को अपने ग्रंथों में स्थान दिया उसी प्रकार पुष्पायुर्वेद में केवल परागरहित पुष्पों को स्थान मिला है। पुष्पायुर्वेद में १८ हजार जाति के केवल पुष्पों के उपयोग से ही औषधि निर्माण की प्रक्रिया बताई गई है, यह पुष्पायुर्वेद इस्वी सन् पूर्व ३ रे शतक की रचना है, प्राचीन कन्नड लिपी है जो बडी कठिनता से बांचने में आती है। इतिहास संशोधकों के लिए यह जैसी अनूठी चीज है, उसी प्रकार आयुर्वेद जगत् के लिए अपूर्व वस्तु है । इस दिशा में जैनाचार्यों के सिवाय किसीने भी कार्य नहीं किया है, यह आज हम निस्संदिग्ध रूप में कह सकते हैं। समंतभद्र गेरसप्पा में रहते थे, आज भी वह ज्वालामालिनी देवी का प्रसिद्ध सातिशय स्थान है, विशालचतुर्मुख मंदिर है, जंगल में यत्र तत्र मूर्तियां बिखरी पडी हैं। दर्शनीय स्थान है, दंतकथा के आधार पर इस स्थान में एक रसकूप है जो कि सिद्धरस का है। कलियुग में धर्मसंकट उपस्थित होने पर इस रसकूप का उपयोग हो सकता है, ऐसा कहा गया है। उस रसकूप के स्थान को देखने के लिए सिद्ध सर्वांजन का प्रयोग करना चाहिए, उस सर्वांजन के निर्माण की विधि पुष्यायुर्वेद में है। इस अंजन में प्रमुख पुष्प उस प्रांत के जंगल में प्राप्त होते हैं यह भी कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि महर्षि समंतभद्र के पहिले भी आयुर्वेद के निर्माता अनेक ग्रंथकार हुए हैं। परंतु आज उनकी कृतियों का अन्वेषण व अनुसंधान करने की महती आवश्यकता है। संशोधन, अन्वेषण व अनुसंधान विभाग का निर्माण कर कई विद्वानों से इस कार्य को कराने की आवश्यकता है। महर्षि पूज्यपाद __ आचार्य समंतभद्र के बाद इस विषय में कदम बढानेवाले महर्षि पूज्यपाद का नाम आदर के साथ लिया जा सकता है। अनंतर के महर्षियों ने भी पूज्यपाद का नाम बडी पूज्यता के साथ लिया है । इस दिशा में पूज्यपाद के कार्य भी उल्लेखनीय हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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