Book Title: Atmanand Prakash Pustak 093 Ank 09 10
Author(s): Pramodkant K Shah
Publisher: Jain Atmanand Sabha Bhavnagar

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Page 16
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६ এ www.kobatirth.org - जैन साधु की स्वतंत्रता - गुरत में चातुर्मास सम्पन्न कर श्री आत्मा राम जी महाराज का बडौदा में आगमन हुआ। कुछ समय तक बडौदा में रुकने के पश्चात् एक दिन उन्होंने व्याख्यान के दौरान घोषणा की कि 'कल हम छाणी की ओर बिहार करेंगे।' किन्तु संयोगवश दूसरे दिन कलकत्ता जैन संघ के एक अग्रगण्य नेता बाबू श्री बद्रीदास जी का बडौदा में आगमन हुआ। महाराज श्री जी अद्भुत बाक्पटुता, मेघावी बुद्धि और अगाध शास्त्रीय ज्ञान के संबंध में उन्होंने बहुत कुछ सुन रखा था। वे स्वयं भद्र स्वभाव के थे । एक तरह से साधु पुरुष थे । उनका इसी भावना से बडौदा आगमन हुआ था कि उन्हें श्री आत्माराम की महाराज जी व्याख्यान वाणी श्रवण करने का अलभ्य लाभ प्राप्त होगा । बिहार का दिन उदिन हुआ। बाबू बद्रादास जी ने विनीत भाव से वंदन कर महाराज श्री से निवेदन किया: 'विगत प्रदीर्घ समय से आप श्री के व्याख्यान रूपी सुधारस का पान करने की उत्कट अभिलाषा मन में संजाए हुए हूँ । अतः आज यही पड़ाव कर व्याख्यान सुनाने की कृपा करें ।" महाराज श्री प्रायः अपने निर्णय और निश्चय अडिग रहते थे । विश्व की कोई शक्ति उन्हें अपने निश्चय से विचलित नहीं कर सकती थी। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा: “भद्र! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આત્માનંદ પ્રકાશ विहार करने का निर्णय पहले ही हो चुका हैं। अब उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता ।" बाबू जी के निराशा का पारावार न रहा । वे व्यथित हो उठे । किन्तु व्याख्यान श्रवण किए बिना कलकत्ता लौट जाना उचित नहीं लगा। अतः भी छाणी पहुँच गए | यहाँ उन्होंने उनका मननीय व्याख्यान सुना और भावविभोर हो गए। उन्होंने प्रयाण करते समय आत्माराम जी महाराज से कलकत्ता पधारने की प्रार्थना की । For Private And Personal Use Only किसी ने बीच में ही हस्तक्षेप करते हुए बाबू बद्रीदास जी से पूछा: "महाराज श्री द्वारा आपकी विनती मान्य न करने के कारण आपको बुरा तो नहीं लगा न ?” संभव है, सामान्य भक्तजन को बुरा लग भी जाए। किंतु मैं तो गुरुदेव की स्वतंत्रता एवं निश्चयात्मकता को निहार, अत्यंत प्रसन्न हुआ है। ऐसे ही दृढ़ मनोबलवारी और धनाढच वर्ग की तनिक भी परवाह न करने वाले मुनि के दर्शन वास्तव में जीवन का एक विरल प्रसंग ही है । हमारी पहुँच अथवा भक्तिभाव से जो मुनि विचलित ही जाते हैं वह भला दूसरा क्या पराक्रम कर सकेंगे ? महाराज जी के अपूर्व मनोबल की देख वाकई मुझे अत्यधिक संतोष हुआ है ।" (क्रमशः )

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