Book Title: Atmanand Prakash Pustak 071 Ank 03 04
Author(s): Jain Atmanand Sabha Bhavnagar
Publisher: Jain Atmanand Sabha Bhavnagar

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Page 237
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१२] શ્રી આત્માનંદ પ્રકાશ युद्ध में सलग्न है, और कही कोई शिकारी पशुओका पीछा कर रहा है । वस्तुतः इस कालकी जैन चित्रकला केवल हिन्दु मन्दिरोंकी सजावटके अभिप्रायसे ही प्रभावित नहि हुई, किन्तु मुगलकालीन फारसी कलाने भी इसे प्रभावित किया । आप देखेंगे कि काष्ठ चित्रपट्टिकाओं तथा सुनहरे और रूपहरे अक्षरों में लिखित ग्रन्थ, जो जैसलमेरके भण्डारोमें उपलब्ध हुए है, वे अन्यत्र दुर्लभ हैं । भारतकी मध्यकालीन चित्रकलाका अध्ययन इनके बिना अधूरा है । इन चित्रपट्टिकाओंमें जैन तीर्थंकरोंके जीवन-प्रसंग, प्राकृतिक दृश्य, जीवजन्तुओंकी आकृति विशेष रूपसे ध्यान आकर्षित करती है। १३ वी सदीकी एक चित्रपट्टिकामें जिराफकी सुन्दर प्रतिकृति बनी हुई है। और सबसे आश्चर्यपूर्ण बात यह है कि कई सौ वर्ष बीत जाने पर भी इन चित्रोंके रंग-रूपमें कोई अन्तर नहीं पड़ा है।' प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और पुरानी गुजरातीके उद्भट विद्वान, भारतीय पुरातत्त्ववेत्ता मुनि पुण्यविजयजी ७५ पूर्ण करने आये हैं, लेकिन उनकी कार्यशक्ति एवं स्मरणशक्तिमें कुछ भी अन्तर नहीं पडा । रात्रिके समय भक्तजनोंकी भीडसे अवकाश मिलने पर ग्रन्थोंके सम्पादन और संशोधनका काम चलता है । मुश्किलसे दो-चार घंटे सोनेका समय निकाल पाते है। १० वर्ष तक मुनिजीने धी- दूधका सेवन नहीं किया। फिर भी इस वृद्धावस्थामें ८-१० मील पैदल चलना (जैन साधुओंको वाहनका उपयोग करना निषिद्ध है ) आपके लिए कोई कठिन काम नहीं ; बम्बई जैसे भीडभडक्केकी नगरीमें आप बोरीबलीसे दादर या पायधुनीसे वालकेश्वर आने के लिए पदयात्रा ही करते हैं । २ वर्ष पहले आपके मोतियाबिंदका आपरेशन हुआ था, इससे चलनेमें कष्ट जरूर होता होगा, लेकिन आप उसे कष्ट न समझ जैन नियमोंका विधिवत् पालन करते हैं। १८९५ में गुजरातके कपडवंज नामक स्थानमें आपका जन्म हुआ । १३ वर्षकी अवस्थामें जैन दीक्षा स्वीकार की। अगले ही दिन मातेश्वरी रत्नश्रीजी ने अपने पुत्रके पदचिह्नोंका अनुगमन किया । गत वर्ष आपकी दीक्षा पर्यायकी षष्ठिपूर्तिका समारोह बडौदामें मनाया गया था। इस पुनीत अवसर पर भारतीय एवं विदेशी विद्वानोंने इस महामना मूक तपस्वीके चरणोमें 'ज्ञानाञ्जलि' (अभिवादन ग्रन्थ) समर्पित की । ___ मुनि पुण्यविजयजी महाराज जैसे निर्माही-अपरिग्रही विद्वानका मिलना बडे सौभाग्यकी बात है । कितने ही बहुम्ल्य अलभ्य ग्रन्थोंको स्वयं परिश्रमपूर्वक संशोधित और संपादित कर, आर दूसरोंको उनके अपने नामसे प्रकाशित करनेकी अनुमति प्रदान करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते । कितने ही विदेशी विद्वानोंने आपकी हस्त. लिखित संशोधित प्रतियोंका उपयोग कर भारतीय तत्त्वविद्या क्षेत्रमें यशोपार्जन किया है। अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिरको अपने संग्रहालयकी १० हजार हस्तलिखित प्रतियां तथा समय-समय पर संग्रहीत ८ हजार बहुमूल्य पुस्तके' में टकर अपने उदार सौजन्यका प्रदर्शन किया है । .: मुनिजीका कहना है कि संशोधनकी सामग्री आजकल जितनी उपलब्ध है उतनी पहले नहीं थी, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि लगन के साथ काम करने वालोका अभाव है। स्वर्गीय वाडीलाल मोतीलाल शाहके शब्द उद्धृत करते हुए आपने बताया कि संसारके जितनेभर भी कष्ट और आपदाए' जब तक समाज पर टूट कर न गिर पडे तब तक समाज उन्नतिके पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। :- मुनि पुण्यविजयजीने भारतमें ही नहीं, अपनी अगाध विद्वत्ताके कारण विदेशों में भी ख्याति प्राप्त की है। अमेरिकाके सुप्रसिद्ध डबल्यू नार्मन ब्राउन और जर्मनीके पुरातत्त्ववेत्ता आल्सडा आदि विद्वान, संशोधन सम्बधी जिज्ञासाओंकी पूर्ति के लिए, आपके पास आते रहते है । १९५९ में गुजराती साहित्य परिषद् अहमदाबाद अधिवेशनमें इतिहास एवं भारतीय संस्कृति विभागके तथा १९६१ में अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद्, श्रीनगर अधिवेशनमें प्राकृत एवं जनधर्म विभागके आप अध्यक्ष रह चुके है । अभी हालमें आपको अमेरिकी प्राच्यविद्या सभाके माननीय सदस्य चुने जानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। For Private And Personal Use Only

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