Book Title: Atma Darshan aur Vigyan ki Drushti me
Author(s): Ashok Kumar Saxena
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 1
________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ चिन्तन के विविध बिन्दु आत्मा : दर्शन और विज्ञान की दृष्टि में * श्री अशोककुमार सक्सेना मनुष्य शरीर में आत्मा की सत्ता सभी–वेद, उपनिषद्, गीता, मनुस्मृति, बुद्ध के धम्मपद, भगवान महावीर के आगम आदि-स्वीकार करते हैं, पाश्चात्य-दर्शन भी आत्मा के अमर अस्तित्व तथा पुनर्जन्म का समर्थन करता है। मुख्य दार्शनिक प्लेटो, अरस्तू, सुकरात ने भी आत्मा तथा पुनजन्म में निष्ठा रक्खी । विभिन्न वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि यह दुनियाँ बिना रूह की मशीन नहीं है । विश्व यन्त्र की अपेक्षा विचार के अधिक समीप लगता है। जड़वाद के जितने भी मत गत चालीस वर्षों में रखे गये हैं, वे आत्मवाद के विचार पर आधारित हैं, यही नवीन विज्ञान है । निःसन्देह अपने ऋमिक विकास में विज्ञान आत्मवादी होता जा रहा है। आत्मा के अस्तित्व पर दर्शन और विज्ञान एकमत होते जा रहे हैं। आत्म-तत्व "तत् त्वमसि'-तुम वह हो । आत्मा प्रत्येक व्यक्ति में है, वह अगोचर है, इन्द्रियातीत है। मनुष्य इस ब्रह्मांड के भंवर से छिटका हुआ छींटा नहीं है । आत्मा की हैसियत से वह भौतिक और सामाजिक जगत् से उभर कर ऊपर उठा है। परन्तु प्रश्न यह है कि एक ही आत्मा सब में व्याप्त है, या सब आत्मा पृथक्-पृथक् हैं । जब यह विद्वानों द्वारा सर्व सम्मति से निश्चित नहीं कि ईश्वर है, तो कैसे कह दूं कि आत्मा एक है। हमारे धर्मग्रन्थ हमें बताते हैं कि यदि हम आत्मा को जानना चाहते हैं, तो हमें श्रवण, मनन, निदिध्यासन का अभ्यास करना होगा, भगवद्गीता ने इस बात को यों कहा है-"तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।" डॉ० राधाकृष्णन के अनुसार इन्हीं तीन महान् सिद्धान्तों को महावीर ने सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के नाम से प्रतिपादित किया है। हममें से अधिकांश जनों पर सांसारिक व्याप्तियाँ स्वामित्व करने लगती हैं, हम उनके स्वामी नहीं रह जाते । ये लोग उपनिषदों के शब्दों में "आत्महनो जनाः" हैं, इसलिए हमें आत्मवान्, आत्मजयी बनना चाहिये, यही बात भगवान् महावीर भी कहते हैं, 'आत्मजयी' हम परिग्रही होकर नहीं बन सकते। आत्म-तत्व का अनन्त ज्ञान ही जनधर्म का मूल संधान है । आचारांग सूत्र में स्पष्ट शब्दों में कहा है "जे एग जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥" और फिर ऐसा कौन हिन्दू है जो आत्म-तत्व के ज्ञान को गौण समझे? न्यायकोष के अनुसार "शवात्मतत्वविज्ञानं सांख्यमित्यभिधीयते।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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