Book Title: Atma Darshan aur Vigyan ki Drushti me
Author(s): Ashok Kumar Saxena
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ चिन्तन के विविध बिन्दु आत्मा : दर्शन और विज्ञान की दृष्टि में * श्री अशोककुमार सक्सेना मनुष्य शरीर में आत्मा की सत्ता सभी–वेद, उपनिषद्, गीता, मनुस्मृति, बुद्ध के धम्मपद, भगवान महावीर के आगम आदि-स्वीकार करते हैं, पाश्चात्य-दर्शन भी आत्मा के अमर अस्तित्व तथा पुनर्जन्म का समर्थन करता है। मुख्य दार्शनिक प्लेटो, अरस्तू, सुकरात ने भी आत्मा तथा पुनजन्म में निष्ठा रक्खी । विभिन्न वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि यह दुनियाँ बिना रूह की मशीन नहीं है । विश्व यन्त्र की अपेक्षा विचार के अधिक समीप लगता है। जड़वाद के जितने भी मत गत चालीस वर्षों में रखे गये हैं, वे आत्मवाद के विचार पर आधारित हैं, यही नवीन विज्ञान है । निःसन्देह अपने ऋमिक विकास में विज्ञान आत्मवादी होता जा रहा है। आत्मा के अस्तित्व पर दर्शन और विज्ञान एकमत होते जा रहे हैं। आत्म-तत्व "तत् त्वमसि'-तुम वह हो । आत्मा प्रत्येक व्यक्ति में है, वह अगोचर है, इन्द्रियातीत है। मनुष्य इस ब्रह्मांड के भंवर से छिटका हुआ छींटा नहीं है । आत्मा की हैसियत से वह भौतिक और सामाजिक जगत् से उभर कर ऊपर उठा है। परन्तु प्रश्न यह है कि एक ही आत्मा सब में व्याप्त है, या सब आत्मा पृथक्-पृथक् हैं । जब यह विद्वानों द्वारा सर्व सम्मति से निश्चित नहीं कि ईश्वर है, तो कैसे कह दूं कि आत्मा एक है। हमारे धर्मग्रन्थ हमें बताते हैं कि यदि हम आत्मा को जानना चाहते हैं, तो हमें श्रवण, मनन, निदिध्यासन का अभ्यास करना होगा, भगवद्गीता ने इस बात को यों कहा है-"तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।" डॉ० राधाकृष्णन के अनुसार इन्हीं तीन महान् सिद्धान्तों को महावीर ने सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के नाम से प्रतिपादित किया है। हममें से अधिकांश जनों पर सांसारिक व्याप्तियाँ स्वामित्व करने लगती हैं, हम उनके स्वामी नहीं रह जाते । ये लोग उपनिषदों के शब्दों में "आत्महनो जनाः" हैं, इसलिए हमें आत्मवान्, आत्मजयी बनना चाहिये, यही बात भगवान् महावीर भी कहते हैं, 'आत्मजयी' हम परिग्रही होकर नहीं बन सकते। आत्म-तत्व का अनन्त ज्ञान ही जनधर्म का मूल संधान है । आचारांग सूत्र में स्पष्ट शब्दों में कहा है "जे एग जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥" और फिर ऐसा कौन हिन्दू है जो आत्म-तत्व के ज्ञान को गौण समझे? न्यायकोष के अनुसार "शवात्मतत्वविज्ञानं सांख्यमित्यभिधीयते।" Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ चिन्तन के विविध बिन्दु : ४५० : गीता दर्शन श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध के लिये प्रेरित करते हुए कहते हैं कि मनुष्य देह और आत्मा का मिला हुआ समुच्चय है । देह के मरने पर आत्मा मरता नहीं है । यह आत्मा न तो कभी मरता है और न जन्मता ही है। ऐसा भी नहीं है कि एक बार होकर फिर होवे नहीं, आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है; शरीर का वध हो जाए तो भी आत्मा मारा नहीं जाता । आत्मा अमर और अविनाशी है । जिस प्रकार कोई मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार देही अर्थात् आत्मा पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करता है। सबके शरीर में रहने वाला आत्मा सदा अवध्य है । ऐसी अवस्था में केवल शरीर के मोह से, अपने धर्म या कर्तव्यपथ से विचलित होना मनुष्य को शोभा नहीं देता-गीता-२-१३, २-१६, २-१०, २-२२, २-२३, २-३० । बौद्धधर्म महात्मा बुद्ध धम्मपद में कहते हैं कि जो अपनी आत्मा को प्रिय समझता है, उसको चाहिए कि आत्मा की रक्षा करे। अपनी आत्मा को पहले यथार्थता में लगावे तब दूसरों को शिक्षा दे। आत्मा को वश में करना ही दुस्तर है, आत्मा ही आत्मा का सहायक है, आत्मदमन से मनुष्य दुर्लभ सहायता प्राप्त कर लेता है, आत्मा से उत्पन्न हआ पाप आत्मा को नाश कर देता है । आत्मा को हानि पहुँचाने वाले कर्म आसान हैं, हित करने वाले शुभकर्म बहत कठिन हैं। -धम्मपद : अत्तवग्गो द्वादसमो १,२,२,४,५,६,७)। जो कार्य अबौद्ध-दर्शन आत्मा से लेते हैं, वह सारा कार्य बौद्ध-दर्शन में मन-चित्त विज्ञान से ही लिया जाता है। आत्मा को जब शाश्वत, ध्र व, अविपरिणामी मान लिया तो फिर उसके संस्कारों का वाहक होने की संगति ठीक नहीं बैठती, किन्तु मन=चित्त=विज्ञान तो परिवर्तनशील है, वह अच्छे कर्मों से अच्छा और बुरे कर्मों से बुरा हो सकता है। धम्मपद की पहली गाथा है : सभी अवस्थाओं का पूर्वगामी मन है, उनमें मन ही श्रेष्ठ है, वे मनोमय हैं । जब आदमी प्रदुष्ट मन से बोलता है व कार्य करता है, तब दुःख उसके पीछे-पीछे ऐसे हो लेता है जैसे (गाड़ी के) पहिये (बैल के) पैरों के पीछे-पीछे । न मन आत्मा है, न धर्म आत्मा है और न ही मनो-विज्ञान आत्मा है। 'आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न है', ऐसा कहना, या यह कहना कि 'आत्मा और शरीर दोनों एक है'-दोनों ही मतों से श्रेष्ठ जीवन व्यतीत नहीं किया जा सकता, अतः तथागत बीच के धर्म का उपदेश देते हैं कि प्रतीत्यसमुत्पाद से दुःख-स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। अविद्या के ही सम्पूर्ण विराग से, निरोध से संस्कारों का निरोध तथा दुःख-स्कन्ध का निरोध होता है। जैनदर्शन जैनदर्शन के अनुसार जीव (आत्मा) तीन प्रकार का है : बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा। परमात्मा के दो प्रकार हैं-अर्हत् और सिद्ध । इन्द्रिय-समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाला बहिरात्मा है । आत्म-संकल्प-देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करने वाला अन्तरात्मा है। कम-कलंक से विमुक्त आत्मा परमात्मा है। केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को जानने वाले स-शरीरी जीव (आत्मा) अर्हत हैं तथा सर्वोत्तम सुख (मोक्ष) को संप्राप्त ज्ञान-शरीरी जीव सिद्ध कहलाते हैं । जिनेश्वरदेव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अन्तरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ - - शुद्ध आत्मा अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चैतन्य गुण वाला, अशब्द, अलिंगग्राह्य और संस्थान रहित है। आत्मा मन, वचन और कायरूप त्रिदण्ड से रहित, निर्द्वन्द्व अकेला, निर्मम ममत्वरहित, निष्कल - शरीररहित, निरालम्ब - परद्रव्यालम्बन से रहित, वीतराग, निर्दोष, मोहरहित, तथा निर्भय है । आत्मा निर्ग्रन्थ (ग्रन्थिरहित ) है, नीराग है, निःशल्य (निदान, माया और मिथ्यादर्शनशल्य से रहित ) है, सर्वदोषों से निर्मुक्त है, निष्काम (कामनारहित ) है और निःक्रोध, निर्मान, तथा निर्भय है। आत्मा ज्ञायक है मैं ( आत्मा ) न शरीर हूँ, न मन है, न वाणी है और न उनका हूँ कारण है। मैं न कर्ता है, न करानेवाला है और न कर्ता का अनुमोदक ही है। - समणसुत: प्रथम खण्ड ज्योतिर्मुख १५ आत्मसूत्र - १७७-१११ ४५१ आत्मा दर्शन और विज्ञान की दृष्टि में नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि आत्मा का अनेकत्व तो स्वीकार करते हैं, किन्तु साथ ही साथ आत्मा को सर्वव्यापक भी मानते हैं। भारतीय दर्शनशास्त्र में आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व मान कर भी उसे स्वदेह परिमाण मानना जैन दर्शन की ही विशेषता है। रामानुज जिस प्रकार ज्ञान को संकोच विकासशाली मानते हैं, उसी प्रकार जैन दर्शन आत्मा को संकोचविकास शाली मानता है । पाश्चात्य दर्शन प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो का मत है कि आत्माएँ दो प्रकार की होती हैं—एक आत्मा अमर है और दूसरी का क्षय हो जाता है । अरस्तू ने अपनी पुस्तक " आत्मा पर" में लिखा है कि शरीर और आत्मा में वैसा सम्बन्ध है जैसा मोम में और मोमबत्ती में मोम एक भौतिक पदार्थ है और मोमबत्ती उसका आकार है । । मुसलमानों में सूफी सम्प्रदाय के सन्त मौलाना जलालुद्दीन ने कहा था- "मैं सहस्रों बार इस पृथ्वी पर जन्म ले चुका है।" यद्यपि ईसाई धर्म पुनर्जन्म तथा आत्मा पर विश्वास नहीं करता, परन्तु पश्चिमी देशों के कई दार्शनिकों ने इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है। एडविन आर्नोल्ड ने आत्मा के अनादित्व तथा अमरत्व को इन शब्दों में व्यक्त किया है । " आत्मा अजन्मा और अमर है । कोई ऐसा समय न था जब यह नहीं थी, इसका अन्त और आरम्भ स्वप्न मात्र है । मृत्यु ने इसे कभी स्पर्श नहीं किया । " विज्ञान की कसौटी पर आधुनिक विज्ञान के अनुसार समस्त दृश्य और अदृश्य जगत सूक्ष्म तरंगों से बना है । इन तरंगों में तीन मुख्य तत्व हैं— जीवाणु शक्ति और विचार। आत्मा इन तीनों का ही एक विशिष्ट स्वरूप है, मृत्यु के उपरान्त आत्मा स्वकीय प्रेरणानुसार किसी भी देह, पदार्थ या स्वरूप का निर्माण या विलय कर सकती है। आत्मा का सशरीर सूक्ष्म शरीर के नाम से जाना जाता है । यह सूक्ष्म शरीर न्यूट्रिनों नामक कणों से निर्मित होता है । न्यूट्रिन कण अदृश्य, आवेश रहित और इतने हल्के होते हैं कि इनमें मात्रा और भार लगभग नहीं के बराबर होता है । ये भी स्थिर नहीं रह सकते और प्रकाश की तीव्र गति से सदा चलते रहते हैं । 1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ वैज्ञानिकों ने प्रयोग करके देखा है कि यदि न्यूट्रिन कणों को किसी दीवार की ओर छोड़ा जाय तो वे दीवार को पार कर अन्तरिक्ष में विलीन हो जाते हैं, कोई भी भौतिक वस्तु उन्हें रोक नहीं सकती । इन न्यूट्रिन कणों को पुनः भौतिक वस्तु के रूप में भी परिवर्तित किया जा सकता है । परामनोविज्ञान के अनुसार यह सूक्ष्म शरीर किसी भी स्थान पर किसी भी दूरी और परिमाण में अपने को प्रकट व पुनर्लय कर सकता है । चिन्तन के विविध बिन्दु ४५२ ईसाइयों के पवित्र आत्मा (होली घोस्ट) के ही समकक्ष श्री अरविन्द ने 'साइके' (PSYCHE) का साक्ष्य दिया है, जिसे 'चैत्य-पुरुष' कहा जाता है, जो कि आत्मा और परमात्मा को जोड़ने वाली एक माध्यमिक कड़ी है। सारे सृजन इस चेत्य पुरुष में से ही आते हैं प्राण-चेतना के गहिरतर स्तरों पर घटित होने वाला उन्मेष या आवेश विधायक, सर्जनात्मक, मंगल कल्याणकारी होता है, वह अतीन्द्रिक होता है, या इन्द्रियेतर ज्ञान-चेतना का प्रतिफलन होता है | मरणोत्तर जीवन और पारलौकिक आत्माओं के साथ सम्पर्क सम्प्रेषण के जो "सियांस" होते हैं, उनमें भी एक संवेदनशील माध्यम के शरीर में मृतात्माओं का आह्वान किया जाता है। सहसा ही माध्यम आविष्ट हो उठता है, उसे अर्ध मूर्छा-सी आ जाती है, तब स्वर्गस्थ आत्माएँ उसके शरीर और चेतना पर अधिकार कर अनेक सुपे रहस्य बताती हैं, भविष्यवाणियों करती हैं, पर लोकों का परिचय देती हैं। विश्व-विख्यात काम-वैज्ञानिक और मनीषी हेवलाक एलिस इन 'सियांस' तथा 'प्लेंट' में अनुभव लेकर आत्माओं के अस्तित्व पर विश्वास करने लगे थे, ओलीवर लाज जैसा शिसरस्थ वैज्ञानिक परलोकवादी हो गया था। उसने स्वयं भूत-प्रेतों तथा अतिभौतिक घटनाओं के अनुभव के अनेक साक्ष्य प्रस्तुत किये थे। । इस सम्बन्ध में कनाडा के प्रसिद्ध स्नायु-सर्जन डा० पेनफील्ड के प्रयोग चिरस्मरणीय रहेंगे ( रीडर्स डाइजेस्ट, सितम्बर, १९५८), जिन्होंने सिद्ध किया कि मस्तिष्क में सूक्ष्म शरीर नित्य बना रहता है, केवल स्थूल शरीर ही विनाशशील है । 1 लन्दन के प्रोफेसर विलियम क्रक्स जो प्रसिद्ध रसायन शास्त्री थे, ने परलोक, पुनर्जन्म तथा आत्मा सम्बन्धी ज्ञान का वैज्ञानिक अध्ययन किया और अपनी जाँच को प्रकाशित कराया— अपनी पुस्तक "रिसचेंज इन स्प्रिीचियुलिज्म' में परान्वेषण में पाश्चात्य वैज्ञानिक डा० मायर्ज, फक पोडमोर, अलफ्रेड वालेस, प्रो० आक्साक्फ, रिचर्ड होडजेसन आदि अपनी प्रामाणिकता के लिये प्रसिद्ध थे, और इन लोगों ने सन् १८८५ में वैज्ञानिक पद्धति से प्लेनचिट की सहायता से तत्सम्बन्धी सत्य का शोध करने के लिये इंग्लैण्ड में एस० ० पी० आर० नामक मानसिक शोध संस्थान की स्थापना की थी । हेग के डा० माल्य और जेस्ट ने परलोकवत जीवों के साथ वार्तालाप करने के लिये डायना मिस्टोग्राफ नामक यन्त्र आविष्कृत किया और इसकी मदद से बिना किसी माध्यम के परलोकगत जीवों के सन्देश पाये । ऐंड्र जैक्सन के अनुसार प्राणमय सूक्ष्म शरीर (आत्मा) की तौल १ औंस हो सकती है । पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने इस सूक्ष्म शरीर को एक्टोप्लाज्म की संज्ञा दी । कैलिफोर्निया के आर्थर ए० बैल ने यह प्रमाणित किया है कि शरीर की विभिन्न जीवन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ क्रियायें मनुष्य की मनोभूमि पर अवलम्बित हैं, देहस्थित सूक्ष्म शरीर में जब शक्ति का क्षय हो जाता है, तब वह स्थूल शरीर के साथ अपना सम्बन्ध तोड़ डालता है । : ४५३ : आत्मा : दर्शन और विज्ञान की दृष्टि में कणाद ऋषि ने कहा है- "अनूनां मनसश्च अर्थ कर्म अदृष्टकारितम्' अतः यह तो निश्चित है कि प्राण (आत्मा) विद्यतात्मक प्रकाशात्मक है, और अथर्ववेद के एकादश काण्ड की दूसरी ऋचा : "नमस्ते प्राण क्रन्दाय, नमस्ते स्तन चिलवे । (विद्यतात्मना विद्योतमानाय ) नमस्ते प्राण विद्यते । नमस्ते प्राण वर्धते ।" की तरह आधुनिक वैज्ञानिकों की भी अब राय प्रदर्शित हो चुकी है कि ऋणाणु धनाणु प्राण- परमाणु विद्युत शक्ति से स्थूल शारीरिक क्रियायें संचालित होती है। बी० बी० [निक नोटगिंग तथा सर क्रक्स ने विगत आत्माओं के छायाचित्र (फोटो) खींचने के विशेष कैमरे की सहायता से मृत आत्माओं के चित्र खींचने में सफल हुये ओनिक ने । अपनी पुस्तक 'पेनोमीनन ऑफ मेटरियलाय जिय' और स्वामी अभेदानन्द ने अपनी पुस्तक 'लाइफ वियोण्ड डेथ' में मृत 'आत्माओं के बहुत से चित्र भी दिये हैं। विस्तृत विवरण के लिये देखिये साइमन एडमंड्स की पुस्तक 'स्प्रिंट फोटोग्राफी' । दिव्य दृष्टि (टेलेफोटो), मनः प्रलय ज्ञान (टेलेपैथी) अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष (एक्स्ट्रा सेन्सरी पर सेप्सन), प्रच्छन्न संवेदन (क्रिप्टेस्थीसिया ), तथा दूरक्रिया ( टेलेपिनेसिस) आदि आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करती हैं । प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री अविन डिंगर ने लिखा है अपने निबन्ध 'सीक फार दी रोड' (१६२५) में कि "सौ साल पूर्व सम्भवतः अन्य कोई व्यक्ति इस स्थान पर बैठा था तुम्हारी तरह वह भी जन्मा । तुम्हारी तरह उसने सुख-दुःख का अनुभव किया...क्या वह तुम्हीं नहीं थे ? यह तुम्हारे अन्दर का आत्मा क्या है ? इस 'और कोई' का स्पष्ट वैज्ञानिक अर्थ क्या हो सकता है ?.... इस तरह देखने या समझने से आप तुरन्त वेदान्त में मूल विश्वास की पूर्ण सार्थकता पर आ जाते है, इन सबका निचोड़ है- 'तत् त्वम् असि या इस प्रकार के शब्दों में मैं पूर्व में हूँ, मैं पश्चिम में हूँ, मैं नीचे हूँ, मैं ऊपर हूँ, मैं यह समूचा संसार हूँ।' आचर्य की बात यह है कि डिंगर ने यह लेख तरंग यांत्रिकी की ऐतिहासिक खोज के कुछ मास पूर्व लिखा । हमारे युग के महान शरीर रचना शास्त्री सर चार्ल्स शेरिंगटन ने अपनी पुस्तक 'मैन आन हिज नेचर' (कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी, १९५१ ) में कहा है- "मानसिक" की परीक्षा ऊर्जा के रूप में नहीं की जा सकती, विचार, भावनाएँ, आदि की अवधारणा ऊर्जा ( द्रव्य) के आधार पर नहीं की जा सकती। वे इससे बाहर की चीजें हैं. इस प्रकार चित्त (चेतन) हमारे स्थूल संसार में एक भारी भूत की तरह चला जाता है। अदृश्य अस्पृश्य, अमूर्त, यह कोई साकार बीज नहीं है, यह कोई 'चीज' ही नहीं है । ज्ञानेन्द्रियों द्वारा उसकी पुष्टि नहीं होती और कभी हो नहीं सकती ।' मौतिकी में नोबेल पुरस्कार विजेता तथा नयी भौतिकी के एक जन्मदाता ई० पी० विग्नर ने स्पष्ट किया है कि - - "कोई भी नापजोख उस समय तक पूरी नहीं होती जब तक उसका परिणाम हमारी चेतना Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन दिवाकर म्मृति-अन्य ।। चिन्तन के विविध बिन्दु : ४५४ : - - में प्रविष्ट नहीं होता । यह अन्तिम चरण उस समय सम्पन्न होता है जबकि अन्तिम मापक उपकरण के और हमारी चेतना को सीधा प्रभावित करने वाली चीज के बीच सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। यह अन्तिम चरण हमारे वर्तमान ज्ञान के लिए अभी रहस्यों से घिरा है और अब तक क्वांटम यांत्रिकी (आधुनिक भौतिकी) या अन्य किसी भी सिद्धान्त के अधीन इसके सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सका है।" आइन्स्टाइन से उनके गम्भीर रोग के दौरान पूछा गया कि क्या वह मृत्यु से डरते हैं, तब उन्होंने उत्तर दिया था, 'मैं सभी जीवित चीजों के साथ ऐसी एकात्मकता का अनुभव करता हैं कि मेरे लिये यह बात कोई अर्थ नहीं रखती कि व्यक्ति कहाँ शुरू होता है और कहाँ समाप्त होता है।" आन्तरिक जगत की वास्तविकता का खंडन नहीं किया जा सकता, हिंशेलवुड ने कहा है"आंतरिक जगत की वास्तविकता का प्रत्याख्यान आसपास की सम्पूर्ण सत्ता को एकदम अस्वीकार करने के समान है। उसकी अर्थवत्ता को कम करना, जीवन के लक्ष्य को ही गिराना है और उसे 'प्राकृतिक चयन के उत्पाद' की संज्ञा देकर उड़ा देना निरा तर्काभास है।' एक अन्य भौतिक-शास्त्री यान नायमान ने क्वांटम यान्त्रिकी की स्थापनाओं के सिद्धान्तों में चेतना (चित्र) के योग का समावेश किया, उन्होंने अनुमान किया कि तथाकथित 'तरंग पिटक' का हल निकालने के लिए चेतना से अन्त:क्रिया आवश्यक है, वह कहते हैं-'विषयी प्रेक्षण एक नयी सत्ता है, जो भौतिक परिमंडल से सापेक्ष है । लेकिन उसके बराबर नहीं की जा सकती। वस्तुतः विषयी के प्रेक्षण हमें व्यक्ति के बौद्धिक आभ्यन्तर जीवन में ले जाता है, जो स्वभावत प्रेक्षणातीत है। हमें संसार को दो भागों में बांटना चाहिये, एक प्रेक्षित प्रणाली, दूसरा प्रेक्षण करने वाला। पहले में हम सारी भौतिक प्रक्रियाओं का अनुसरण कर सकते हैं (कम से कम सिद्धान्त रूप में) । दूसरे में यह बात अर्थहीन है। दोनों के बीच की सीमा रेखा बहुत कुछ तदर्थ है। यह सीमा वास्तविक प्रेक्षण के शरीर के भीतर मनमाने ढंग से ले जायी जा सकती है। यही बात मनोभौतिक समांतरवोद के सिद्धान्त का सार है, लेकिन इससे इस तथ्य में कोई परिवर्तन नहीं आता कि हर विधि में सीमा (शरीर तथा चित्र के बीच) कहीं रखनी जरूर होगी।' स्व० योगानन्द परमहंस का क्रिया योग, राधास्वामी गुरु महाराज श्री चरनसिंह का सबत-सुरत योग, महर्षि महेषयोगी का सर्वातीत-ध्यान (ट्रांसेंडेंटल मेडीटेशन), इन सभी यौगिक विद्याओं में इस उपरि-मानसिक अतीन्द्रिक या आत्मिक उन्मेष का अनुभव ध्यान में अचूक रूप से होता है। प्रत्येक प्राणि के शरीर के अदृश्य आभावलय (AURA) को देखकर उसकी मानसिक स्थिति का निर्णय करने के लिये लोबसांग रम्पा ने एक यन्त्र आविष्कृत किया है। इस विलय-दर्शन से व्यक्ति की अचूक चिकित्सा हो सकती है। हिप्नाटिज्म यानी सम्मोहन विद्या से पूर्व-जन्म-स्मृति या जाति-स्मरण ज्ञान तक पहुँचने के अनेक सफल प्रयोग हुये हैं। अभी कुछ ही दशक पहले जर्मनी में एक महान आधुनिक योगदर्शी हुआ है-रूडाल्फ स्टाइनर । उसने ऑकल्ट से अतीन्द्रिक आत्मानुभूति तक जाने के मार्ग का अन्वेषण किया था । गजिफ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४५५ : आत्मा : दर्शन और विज्ञान की दृष्टि में और आडस्पेस्की भी समकालीन विश्व के महान पराभौतिक द्रष्टा और चिन्तक हए। अमेरिका के प्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिक डा० स्टीवेन्सन इसी अनुसन्धान हेतु भारत भी आये थे। अमरीका के 'विलसा क्लाउड चैम्बर' के शोध से बड़े आश्चर्यजनक तथ्य सामने आये हैं । इससे यह प्रकट होता है कि मत्यु के उपरान्त भी प्राणी का अस्तित्व किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है। इस प्रयोग के अन्तर्गत एक ऐसा बड़ा सिलिण्डर लिया जाता है, जिसकी भीतरी परतें विशेष चमकदार होती हैं । फिर उसमें कुछ रासायनिक घोल डाले जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप विशेष प्रकार की चमकदार और हल्की-सी प्रकाशीय गैस भीतर फैल जाती है। इस गैस की विशेषता है कि यदि कोई परमाणु या इलेक्ट्रान इसके भीतर प्रवेश करें तो शक्तिशाली कैमरे द्वारा उसका चित्र उतार लिया जाता है। प्रयोग के लिये एक चहा रखा गया। बिजली का करण्ट लगा कर इस चूहे को मार डाला गया। चूहे के मरणोपरान्त उस सिलेण्डर का चित्र उतारा गया। वैज्ञानिक यह देख कर विस्मित हुये बिना नहीं रहे कि मृत्यु के पश्चात् गैस के कुहरे में भी मृत चूहे की धुंधली आकृति तैर रही थी। वह आकृति वैसी ही हरकतें भी कर रही थी जैसी जीवित अवस्था में चूहा करता है। इस प्रयोग से यह प्रमाणित हआ कि चूहा मृत्यु के पश्चात् प्राणी सत्ता किसी न किसी रूप में विद्यमान रहती है। अपनी सविख्यात कृति 'मेनोरीज, डीम्स. रिफ्लेक्शन्स' में विश्व-विख्यात तत्त्वदर्शी, चिन्तक और मनोवैज्ञानिक 'कार्ला जुग' ने अपने एक विचित्र अनुभव का वर्णन किया है, जिसका तात्पर्य है कि हमारे जगत में अवश्य ही एक चौथा आयाम है, जो अनोखे रहस्यों से ओतप्रोत है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों स्टेनिस्लाव ग्रोफ और जान हेलिफेक्स ग्रोफ ने पिछले दिनों अनेक रोगियों का अध्ययन करते समय तथा रेमण्ड ए० मूडी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'लाइफ आफ्टर में ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख किया है-जब रोगी मृतक घोषित कर दिये गये, पर फिर भी तत्पश्चात् मृतक जीवित हो उठे और उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारा। अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डा० नेलसन वाल्ट का कथन है कि-...'मनष्य के अन्दर एक बलवती आत्म-चेतना रहती है, जिसे जिजीविषा एवं प्राणधात्री शक्ति कह सकते हैं। मन:शास्त्री हेनब्रक ने अपनी शोधों में इस बात का उल्लेख किया है कि अतीन्द्रिय क्षमता पुरुषों की अपेक्षा नारियों में कहीं अधिक होती है। रूस के इलेक्ट्रान विशेषज्ञ मयोन किलियान ने फोटोग्राफी की एक विशेष प्रविधि द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है कि मानव के स्थूल शरीर के अन्दर का मुक्ष्म शरीर ऐसे सूक्ष्म पदार्थों से बना होता है, जिनके इलेक्ट्रान स्थूल शरीर के इलेक्ट्रानों की अपेक्षा अत्यधिक तीव्र गति से गतिमान होते हैं। यह सूक्ष्म शरीर पार्थिव शरीर से अलग होकर कहीं भी विचरण कर सकता है। न्यूयार्क में परामानसिक तत्त्वों की खोज के लिए एक विभाग की स्थापना की गयी है, जिसके अध्यक्ष हैं 'डा० रोबर्ट बेफर'। लेनिनग्राद विश्वविद्यालय के फिजियोलॉजी विभाग के अध्यक्ष प्रो० लियोनिद वासिलयेव Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ / चिन्तन के विविध बिन्दु : 456 : ने टेलीपैथी द्वारा कई मील दूर एक प्रयोगशाला में अनुसन्धानरत वैज्ञानिकों को सम्मोहित कर अनुसन्धानकर्ताओं को अपने प्रयोग से हटाकर दूसरे प्रयोग में लगवा दिया। यह घटना सिद्ध करती है कि भौतिक शरीर के परे मनुष्य के सूक्ष्म शरीर का भी अस्तित्व है / - आत्मा या प्राणों की गुत्थी आज भी वैज्ञानिकों के सम्मुख प्रश्न चिन्ह बनी खड़ी है। वे नहीं कह सकते कि प्राण मस्तिष्क में बसते हैं या आत्मा में, या मस्तिष्क और आत्मा का कोई ऐसा सम्बन्ध है, जिसका पर्दा उठना अभी बाकी है। प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री मिखाइल पोलान्यी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि विश्व की अधिकांश वस्तुओं का अस्तित्व कुछ ऐसे सिद्धान्तों पर आधारित है, जिनका ज्ञान आधुनिक वैज्ञानिकों को नहीं है। प्राणी के सम्बन्ध में हम जितना जानते हैं, उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मानव शरीर एक 'यन्त्र' है, किन्तु 'मैं' इसकी गतिविधियों को नियन्त्रित करता है। चित्त-शरीर समस्या सदा से जीवित है, हर्मन वेल के शब्दों में-"हमें विज्ञान के आगे विकास की प्रतीक्षा करनी होगी। सम्भवतः हजारों वर्ष तक, तब जाकर हम द्रव्य, जीवन तथा आत्मा के जटिल तानेबाने का एक विस्तृत चित्र प्रस्तुत कर सकेंगे और इस साहसपूर्ण कार्य को मानव किस प्रकार झेल सकेगा, सिवा जीवात्मा तथा परमात्मा की परस्पर पूरकता में आस्था के आधार पर ?" [प्रस्तुत लेख में लेखक ने आत्मा के सम्बन्ध में पौर्वात्य एवं पाश्चात्य दार्शनिकों. वैज्ञानिकों एवं डाक्टरों के अभिमत दिये हैं। इसमें उनके अनुभवों व प्रयोगों के आधार पर बने विचार हैं। आधुनिक जगत आत्मा के सही स्वरूप तक कब पहुँचेगा यह मन्जिल अभी दूर लगती है। -संपादक परिचय एवं पता: अशोककुमार सक्सेना दर्शन और विज्ञान के अध्येता वरिष्ठ शिक्षक जीव-विज्ञान जवाहर विद्यापीठ, कानोड़।