Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 5
________________ ९३ १२७ ० ० विषय पृष्ठ | विषय टीकाकारकृत आयतन का अर्थ तथा इनसे है तथा उसका धारक पात्र कैसा होता है ? ११४ विपरीत अन्यमत-स्वीकृत का निषेध दीक्षा का अंतरंग स्वरूप तथा दीक्षाविषय चैत्यगृह का कथन विशेषकथन ११४ जंगमथावर रूप जिनप्रतिमा का निरूपण दीक्षा का बाह्यस्वरूप तथा विशेष कथन प्रव्रज्या दर्शन का स्वरूप का संक्षिप्त कथन जिनबिंब का निरूपण | बोधपाहुड (षट्जीवहितंकर) का संक्षिप्त कथन १२४ जिनमुद्रा का स्वरूप सर्वज्ञप्रणीत तथा पूर्वाचार्यपरंपरागत अर्थ का ज्ञान का निरूपण प्रतिपादन दृष्टान्त द्वारा ज्ञान का दृढ़ीकरण भद्रबाहुश्रुतकेवली के शिष्य ने किया है ऐसा विनयसंयुक्तज्ञानी के मोक्ष की प्राप्ति होती है कथन १२८ मतिज्ञानादि द्वारा मोक्षलक्ष्यसिद्धि में बाण श्रुतकेवली भद्रबाहु की स्तुति १२८ आदि दृष्टान्त का कथन ५. भावपाहुड देव का स्वरूप जिनसिद्धसाधुवंदन तथा भावपाहुड कहने की धर्म, दीक्षा और देव का स्वरूप सूचना १३० तीर्थ का स्वरूप द्रव्यभावरूपलिंग में गुण दोषों का उत्पादक अरहंत का स्वरूप १०३ भावलिंग ही परमार्थ है १३१ नाम की प्रधानता से गुणों द्वारा अरहंत का कथन १०४ बाह्यपरिग्रह का त्याग भी अंतरंगपरिग्रह के दोषों के अभाव द्वारा ज्ञानमूर्ति अरहंत का कथन १०५ | त्याग में ही सफल है गुणस्थानादि पंच प्रकार से अरहंत की स्थापना करोड़ों भव तप करने पर भी भाव के पंचप्रकार है बिना सिद्धि नहीं गुणस्थान स्थापना से अरहंत का निरूपण १०६ भाव के बिना (अशुद्ध परिणति में) बाह्य मार्गणा द्वारा अरहंत का निरूपण १०७ त्याग कार्यकारी नहीं पर्याप्तिद्वारा अरहंत का कथन मोक्षमार्ग में प्रधान भाव ही हैं, अन्य अनेक प्राणों द्वारा अरहंत का कथन १०९ | लिंग धारने से सिद्धि नहीं । १३४ जीवस्थान द्वारा अरहंत का निरूपण १०९ अनादि काल से अनंतानंत संसार में भावरहित द्रव्य की प्रधानता द्वारा अरहंत का निरूपण ११० बाह्यलिंग अनंतबार छोड़े तथा ग्रहण किये हैं १३४ भाव की प्रधानता से अरहंत का निरूपण १११ भाव के बिना सांसारिक अनेक दुःखों को अरहंत के भाव का विशेष विवेचन १११ | प्राप्त हुआ है, इसलिए जिनोक्त भावना की प्रव्रज्या (दीक्षा) कैसे स्थान पर निर्वाहित होती | भावना करो १३५ (२८) १०२ ० १३२ १०५

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