Book Title: Arddhmagadhi Agam Sahitya me Astikaya
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf

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Page 2
________________ कहते, किन्तु सम्पूर्ण को चक्र कहते हैं, इसी 'द्रव्य' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा जाता है- द्रवति प्रकार गौतम! धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को तांस्तान् पर्यायान् गच्छति इति द्रव्यम्। जो प्रतिक्षण विभिन्न धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता है यावत् एक पर्यायों को प्राप्त होता है, वह द्रव्य है। अस्तिकाय पाँच ही हैं, प्रदेश न्यून तक को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा जबकि द्रव्य छह हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वितीय शतक में पाँचों सकता। अस्तिकाय का पाँच द्वारों से वर्णन किया गया है- द्रव्य से, क्षेत्र प्रश्न - भन्ते! फिर धर्मास्तिकाय किसे कहा जा सकता से, काल से, भाव से और गुण से। द्रव्य से वर्णन करते हुए धर्मास्तिकाय को एक द्रव्य, अधर्मास्तिकाय को एक द्रव्य आकाशास्तिकाय को एक द्रव्य तथा जीवास्तिकाय एवं उत्तर - गौतम! धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं, जब वे कृत्सन, परिपूर्ण, निरवशेष एक के ग्रहण से पुद्गलास्तिकाय को क्रमश: अनन्त जीवद्रव्य एवं अनन्त पुद्गल प्रतिपादित किया गया है। इसका तात्पर्य है कि 'अस्तिकाय' सब ग्रहण हो जाएँ, तब गौतम! उसे धर्मास्तिकाय कहा जाता है। जहाँ तीनों कालों में रहने वाली अखण्ड प्रचयात्मक राशि का बोधक है, वहाँ द्रव्य शब्द के द्वारा उस अस्तिकाय के खण्डों का धर्मास्तिकाय की भाँति व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में। भी ग्रहण हो जाता है। इनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, जीवास्तिकाय और अकाशास्तिकाय तो अखण्ड ही रहते हैं, उनके कल्पित खण्ड पुद्गलास्तिकाय का भी अखण्ड स्वरूप में अस्तिकायत्व ही हो सकते हैं, वास्तविक नहीं, जबकि जीवास्तिकाय में अनन्त स्वीकार किया गया है। यह अवश्य है कि जहां धर्मास्तिकाय एवं जीव द्रव्य और पुद्गलास्तिकाय में अनन्त पुद्गल द्रव्य अपने अधर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं वहां आकाशस्तिकाय, अस्तिकाय के खण्ड होकर भी अपने आप में स्वतन्त्र रूप से जीवस्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश हैं। इसका अस्तित्व में रहते हैं। नाम से वे सभी जीव जीवद्रव्य एवं सभी तात्पर्य है कि जिस प्रकार धर्मास्तिकाय के अन्तर्गत निरवशेष पुद्गल पुद्गलद्रव्य कहे जाते हैं। असंख्यात प्रदेशों का ग्रहण होता है, उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय आदि के भी अपने समस्त प्रदेशों का उस अस्तिकाय में ग्रहण अनुयोगद्वार सूत्र में द्रव्य नाम छह प्रकार का प्रतिपादित हैहोता है। एक प्रदेश भी न्यून होने पर उसे तत् तत् अस्तिकाय १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ४. नहीं कहा जाता। जीवास्तिकाय ५. पुद्गलास्तिकाय और ६. अद्धासमय (काल) अस्तिकाय का द्रव्य से भेद पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश अर्थात् परमाणु को कथंचित् अस्तिकाय का द्रव्य से यही भेद है कि अस्तिकाय में जहाँ द्रव्य, कथंचित् द्रव्यदेश कहा गया है। इसी प्रकार दो प्रदेशों को धर्मास्तिकाय आदि के अखण्ड निरवशेष स्वरूप का ग्रहण होता। कथंचित् द्रव्य, कथंचित् द्रव्यदेश, कथंचित् अनेक द्रव्य और है, वहाँ धर्मद्रव्य आदि में उसके अंश का भी ग्रहण हो जाता है। अनेक द्रव्यदेश कहा गया है। इसी प्रकार तीन, चार, पाँच यावत् परमार्थत: धर्मास्तिकाय अखण्ड द्रव्य है, उसके अंश नहीं होते असंख्यात एवं अनन्त प्रदेशों के संबंध में कथन करते हुए उन्हें हैं। अत: पुद्गलास्तिकाय कहलायेगा तथा टेबल, कुर्सी, पेन, एक द्रव्य एवं द्रव्यदेश, अनेक द्रव्य एवं अनेक द्रव्यदेश कहा पुस्तक, मकान आदि पुद्गल द्रव्य कहलायेंगे, पुद्गलास्तिकाय गया है। नहीं। टेबल आदि पुद्गल तो हैं, किन्तु पुद्गलास्तिकाय नहीं। पाँच अस्तिकायों में आकाश सबका आधार है। आकाश क्योंकि इनमें समस्त पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता है। अत: टेबल, ही अन्य अस्तिकायों को स्थान देता है। आकाशस्तिकाय लोक कुर्सी आदि को पुद्गल द्रव्य कहना उपयुक्त है। इसी प्रकार एवं अलोक में व्याप्त है, जबकि अन्य चार अस्तिकाय जीवास्तिकाय में समस्त जीवों का ग्रहण हो जाता है, उसमें कोई भी जीव छूटता नहीं है, जबकि अलग-अलग, एक-एक जीव भी लोकव्यापी हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय से पूरा लोक स्पृष्ट है। जीव द्रव्य कहे जा सकते हैं। यह अस्तिकाय एवं द्रव्य का सूक्ष्म भेद आगमों में सन्निहित है। काल को द्रव्य तो स्वीकार किया द्रव्य का विभाजन आगामों में षड्द्रव्यों के अतिरिक्त जीव गया है, किन्तु उसका कोई अखण्ड स्वरूप नहीं है. उसमें प्रदेशों एवं अजीव के रूप में भी किया गया है, यथाका प्रचय भी नहीं है, अत: वह अस्तिकाय नहीं है। ० अष्टदशी / 2270 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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