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डॉ० धर्मचन्द जैन, प्रोफेसर संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
अस्तिकाय
'अस्तिकाय' जैन दर्शन का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है, लोक या जगत् के स्वरूप का निर्धारण करता है। अस्तिकाय का निरूपण एवं विवेचन शौरसेनी, अर्द्धमागधी एवं संस्कृत भाषा. में रचित आगम ग्रन्थों, सूत्रों, टीकाओं एवं प्रकारण ग्रन्थों में विस्तार से समुपलब्ध है, किन्तु प्रस्तुत लेख में अर्द्धमागधी आगमों में निरूपित पंचास्तिकाय पर विचार करना ही समभिप्रेत है । अर्द्धमागधी भाषा में निबद्ध आगम श्वेताम्बर परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दिगम्बर परम्परा इन्हें मान्य नहीं करती। उनके षट्खण्डागम, कसायपाहुड, समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसंग्रह आदि ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं। अर्द्धमागधी आगमों में मुख्यतः व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र, जीवाजीवाभिगम सूत्र, समवायांग, स्थानांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में पंचास्तिकाय एवं षड् द्रव्यों का निरूपण सम्प्राप्त होता है इसिभासियाई ग्रन्थ भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
6.
अस्तिकाय पाँच हैं२- १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय आकाशस्तिकाय जीवास्तिकाय और ५. पुद्गलास्तिकाय । द्रव्य को ६ प्रकार का प्रतिपादित करते समय अद्धासमय (काल) को भी पंचास्तिकाय के साथ जोड़कर निरूपित किया जाता है। अस्तिकाय एवं द्रव्य दो भिन्न शब्द हैं, अतः इनके अर्थ में भी कुछ भेद होना चाहिये। अस्तिकाय द्रव्य है, किन्तु मात्र अस्तिकाय नहीं है।
'अस्तिकाय' (अत्थिकाय) शब्द का विवेचन करते हुए आगम टीकाकार अभयदेव सूरि ने कहा है- अस्तीत्वयं त्रिकालवचनो निपातः अभूवन् भवन्ति भविष्यनित थेति भावना । अतोऽस्ति च ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इतिअस्तिकायाः । अस्ति' शब्द त्रिकाल का वाचक निपात है, अर्थात् 'अस्ति' से भूतकाल, वर्तमान एवं भविष्यत् तीनों में रहने वाले पदार्थों का ग्रहण हो जाता है। 'काय' शब्द राशि या समूह का वाचक है। जो कार्य अर्थात् राशि तीनों कालों में रहे वह अस्तिकाय है। अस्तिकाय की एक अन्य व्युत्पत्ति में अस्ति का अर्थ प्रदेश करते हुए प्रदेशों की राशि या प्रदेश समूह को अस्तिकाय कहा गया है- अस्तिशब्देन प्रदेशप्रदेशा: क्वचिदुच्यन्ते, ततश्च तेषां वा कायाः अस्तिकाया: । इस
अर्द्धमागधी आगम साहित्य में अस्तिकाय के द्वारा सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या हो जाती है।
अस्तिकाय
'अस्तिकाय' को व्याख्यामज्ञप्ति सूत्र के आधार पर स्पष्टरूपेण समझा जा सकता है। वहाँ पर तीर्थंकर महावीर से उनके प्रमुख शिष्य गौतम गणधर ने जो संवाद किया, वह इस प्रकार है*
प्रश्न
༣.
उत्तर
प्रश्न
उत्तर
प्रश्न
उत्तर
प्रश्न
उत्तर
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भंते! क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ?
गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (अर्थात् धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता)
भन्ते क्या धर्मास्तिकाय के दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस, संख्यात और असंख्यात प्रदेशों को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ?
गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
भन्ते ! एक प्रदेश न्यून धर्मास्तिकाय को क्या 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ?
गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
भन्ते किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम! जिस प्रकार चक्र के खण्ड को चक्र नहीं
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कहते, किन्तु सम्पूर्ण को चक्र कहते हैं, इसी 'द्रव्य' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा जाता है- द्रवति प्रकार गौतम! धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को तांस्तान् पर्यायान् गच्छति इति द्रव्यम्। जो प्रतिक्षण विभिन्न धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता है यावत् एक पर्यायों को प्राप्त होता है, वह द्रव्य है। अस्तिकाय पाँच ही हैं, प्रदेश न्यून तक को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा जबकि द्रव्य छह हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वितीय शतक में पाँचों सकता।
अस्तिकाय का पाँच द्वारों से वर्णन किया गया है- द्रव्य से, क्षेत्र प्रश्न - भन्ते! फिर धर्मास्तिकाय किसे कहा जा सकता
से, काल से, भाव से और गुण से। द्रव्य से वर्णन करते हुए धर्मास्तिकाय को एक द्रव्य, अधर्मास्तिकाय को एक द्रव्य
आकाशास्तिकाय को एक द्रव्य तथा जीवास्तिकाय एवं उत्तर - गौतम! धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं, जब वे कृत्सन, परिपूर्ण, निरवशेष एक के ग्रहण से
पुद्गलास्तिकाय को क्रमश: अनन्त जीवद्रव्य एवं अनन्त पुद्गल
प्रतिपादित किया गया है। इसका तात्पर्य है कि 'अस्तिकाय' सब ग्रहण हो जाएँ, तब गौतम! उसे धर्मास्तिकाय कहा जाता है।
जहाँ तीनों कालों में रहने वाली अखण्ड प्रचयात्मक राशि का
बोधक है, वहाँ द्रव्य शब्द के द्वारा उस अस्तिकाय के खण्डों का धर्मास्तिकाय की भाँति व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में।
भी ग्रहण हो जाता है। इनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, जीवास्तिकाय और
अकाशास्तिकाय तो अखण्ड ही रहते हैं, उनके कल्पित खण्ड पुद्गलास्तिकाय का भी अखण्ड स्वरूप में अस्तिकायत्व
ही हो सकते हैं, वास्तविक नहीं, जबकि जीवास्तिकाय में अनन्त स्वीकार किया गया है। यह अवश्य है कि जहां धर्मास्तिकाय एवं
जीव द्रव्य और पुद्गलास्तिकाय में अनन्त पुद्गल द्रव्य अपने अधर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं वहां आकाशस्तिकाय,
अस्तिकाय के खण्ड होकर भी अपने आप में स्वतन्त्र रूप से जीवस्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश हैं। इसका
अस्तित्व में रहते हैं। नाम से वे सभी जीव जीवद्रव्य एवं सभी तात्पर्य है कि जिस प्रकार धर्मास्तिकाय के अन्तर्गत निरवशेष
पुद्गल पुद्गलद्रव्य कहे जाते हैं। असंख्यात प्रदेशों का ग्रहण होता है, उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय आदि के भी अपने समस्त प्रदेशों का उस अस्तिकाय में ग्रहण
अनुयोगद्वार सूत्र में द्रव्य नाम छह प्रकार का प्रतिपादित हैहोता है। एक प्रदेश भी न्यून होने पर उसे तत् तत् अस्तिकाय
१. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ४. नहीं कहा जाता।
जीवास्तिकाय ५. पुद्गलास्तिकाय और ६. अद्धासमय
(काल) अस्तिकाय का द्रव्य से भेद
पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश अर्थात् परमाणु को कथंचित् अस्तिकाय का द्रव्य से यही भेद है कि अस्तिकाय में जहाँ
द्रव्य, कथंचित् द्रव्यदेश कहा गया है। इसी प्रकार दो प्रदेशों को धर्मास्तिकाय आदि के अखण्ड निरवशेष स्वरूप का ग्रहण होता।
कथंचित् द्रव्य, कथंचित् द्रव्यदेश, कथंचित् अनेक द्रव्य और है, वहाँ धर्मद्रव्य आदि में उसके अंश का भी ग्रहण हो जाता है।
अनेक द्रव्यदेश कहा गया है। इसी प्रकार तीन, चार, पाँच यावत् परमार्थत: धर्मास्तिकाय अखण्ड द्रव्य है, उसके अंश नहीं होते
असंख्यात एवं अनन्त प्रदेशों के संबंध में कथन करते हुए उन्हें हैं। अत: पुद्गलास्तिकाय कहलायेगा तथा टेबल, कुर्सी, पेन,
एक द्रव्य एवं द्रव्यदेश, अनेक द्रव्य एवं अनेक द्रव्यदेश कहा पुस्तक, मकान आदि पुद्गल द्रव्य कहलायेंगे, पुद्गलास्तिकाय
गया है। नहीं। टेबल आदि पुद्गल तो हैं, किन्तु पुद्गलास्तिकाय नहीं।
पाँच अस्तिकायों में आकाश सबका आधार है। आकाश क्योंकि इनमें समस्त पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता है। अत: टेबल,
ही अन्य अस्तिकायों को स्थान देता है। आकाशस्तिकाय लोक कुर्सी आदि को पुद्गल द्रव्य कहना उपयुक्त है। इसी प्रकार
एवं अलोक में व्याप्त है, जबकि अन्य चार अस्तिकाय जीवास्तिकाय में समस्त जीवों का ग्रहण हो जाता है, उसमें कोई भी जीव छूटता नहीं है, जबकि अलग-अलग, एक-एक जीव भी
लोकव्यापी हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय
और पुद्गलास्तिकाय से पूरा लोक स्पृष्ट है। जीव द्रव्य कहे जा सकते हैं। यह अस्तिकाय एवं द्रव्य का सूक्ष्म भेद आगमों में सन्निहित है। काल को द्रव्य तो स्वीकार किया
द्रव्य का विभाजन आगामों में षड्द्रव्यों के अतिरिक्त जीव गया है, किन्तु उसका कोई अखण्ड स्वरूप नहीं है. उसमें प्रदेशों एवं अजीव के रूप में भी किया गया है, यथाका प्रचय भी नहीं है, अत: वह अस्तिकाय नहीं है।
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कइविहा णं भंते! दव्वा पण्णत्ता?
असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यन्तर हैं, असंख्यात गोयमा दुविहा दव्वा पण्णत्ता, तं जहा-जीवदव्वा य जीवदव्वा या० । ज्योतिष्क देव हैं, असंख्यात वैमानिक देव हैं, अनन्त सिद्ध हैं। भगवन्! द्रव्य कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं?
इस प्रकार हे गौतम! जीवपर्याय संख्यात और असंख्यात नहीं, गौतम! दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं- जीव द्रव्य और अजीव
किन्तु अनन्त हैं।१३ द्रव्य।
धर्मास्तिकाय गति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की
गति में सहायक होता है। अधर्मास्तिकाय स्थिति परिणाम वाले व्याख्याप्रज्ञप्ति में अजीव द्रव्यों को पुन: रूपी अजीव द्रव्य
जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहकारी होता है। एवं अरूपी अजीव द्रव्य में विभक्त किया जाता है।
आकाशास्तिकाय अन्य सभी द्रव्यों/अस्तिकायों को स्थान/ प्रज्ञापना सूत्र में अरूपी अजीव द्रव्य की १० पर्याय एवं
अवकाश देता है। जीवास्तिकाय चेतनागुण या उपयोगगुण वाला रूपी अजीव द्रव्य की ४ पर्याय निरूपित हैं। अरूपी अजीव द्रव्य
होता है। पुद्गलास्तिकाय वर्ण, गंध रस एवं स्पर्श वाला होता है। की १० पर्याय हैं११-१.धर्मास्तिकाय २. धर्मास्तिकाय के देश
शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान भेद, अंधकार, छाया, ३. धर्मास्तिकाय के प्रदेश, ४. अधर्मास्तिकाय ५.
आतप, उद्योत वाले द्रव्य भी पुदगल होते हैं। काल वर्तना लक्षण अधर्मास्तिकाय के देश ६. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश ७.
वाला है।१४ आकाशास्तिकाय ८. आकाशस्तिकाय के देश ९.
इनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय के प्रदेश और १०. अद्धासमय। अरूपी से
पुद्गलास्तिकाय अजीवकाय हैं तथा धर्मास्तिकाय, तात्पर्य है वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से रहित। धर्मास्तिकाय,
अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं काल द्रव्य वर्णादि से रहित होने के कारण अरूपी हैं। रूपी द्रव्य एक ही है
__ अरूपीकाय हैं, क्योंकि इनमें वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श नहीं हैं। पुद्गलास्तिकाय। इसके चार पर्याय हैं- स्कन्ध, स्कन्धदेश,
प्रदेश की अपेक्षा धर्म, अधर्म एवं एक जीव द्रव्य में असंख्यात
प्रदेश माने गए हैं तथा आकाश में अनन्त प्रदेश कहे गए हैं। स्कन्ध प्रदेश और परमाणु पुद्गल। पुद्गल का स्वतन्त्र खण्ड
पुद्गल में संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं। पुद्गल स्कन्ध, उसका कल्पित अंश देश एवं उसका परमाणु जितना कल्पित अंश प्रदेश कहा जाता है। परमाणु पुद्गल स्वतंत्र है।
परमाणु एक प्रदेशी होकर भी अनेक स्कन्ध रूप बहु प्रदेशों को देश एवं प्रदेश के धर्मास्तिकाय आदि अरूपी द्रव्यों में भी
ग्रहण करने की योग्यता रखता है। गुरुलघुत्व की अपेक्षा से कल्पित अंश एवं परमाणु जितने कल्पित अंश ही वाच्य हैं।
पुद्गलास्तिकाय गुरुलघु भी है और अगुरुलघु भी, किन्तु
धर्मास्तिकाय आदि शेष चार अगुरुलघु हैं। रूपी अजीव द्रव्य की अनन्त पर्यायों का भी प्रतिपादन हुआ है। गौतम गणधर के प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापना सूत्र में भगवान
षड्द्रव्यों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और महावीर ने स्पष्ट किया है- गौतम! परमाणु पुद्गल अनन्त हैं,
आकाशास्तिकाय द्रव्य की दृष्टि से तुल्य हैं तथा षड्द्रव्यों में द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, यावत् दशप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त
सबसे अल्प हैं। उनसे जीवास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणे
हैं, उनसे पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं। उनसे हैं, संख्यात प्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, असंख्यात प्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं। इस कारण
अद्धासमय द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं।१५।। है गौतम! ऐसा कहा जाता है कि रूपी अजीव पर्याय संख्यात संख्या का यह निर्देश इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि और असंख्यात नहीं है, किन्तु अनन्त हैं।१२।
अस्तिकाय एवं द्रव्य में भिन्नता है। धर्मास्तिकाय, जीवद्रव्य की भी अनन्त पर्याय स्वीकृत हैं। इसका कारण
अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय में द्रव्य एवं अस्तिकाय
की दृष्टि से समानता हैं, क्योंकि वे अस्तिकाय की दृष्टि से भी प्रतिपादित करते हुए कहा गया है- असंख्यात नैरयिक हैं,
एक-एक हैं तथा द्रव्य की दृष्टि से भी एक-एक हैं। असंख्यात् असुरकुमार यावत् असंख्यात स्तनित कुमार हैं,
जीवास्तिकाय को द्रष्ट की दृष्टि से धर्मास्तिकाय की अपेक्षा असंख्यात पृथ्वीकायिक हैं, असंख्यात अपकायिक हैं,
अनन्तगुणा कहा गया है। इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक जीव एक असंख्यात् तेजस्कायिक हैं, असंख्यात वायुकायिक हैं, अनन्त वनस्पतिकायिक हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं, असंख्यात त्रीन्द्रिय है,
भिन्न द्रव्य है इसलिए उन्हें अनन्तगुणा कहा गया है। असंख्यात् चतुरिन्द्रिय हैं, असंख्यात् पचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक हैं,
पुद्गलास्तिकाय को तो द्रव्य की दृष्टि से जीव से भी अनन्तुणा
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प्रतिपादित किया गया है। इसका कारण परमाणु को भी द्रव्य के जाते हैं। आकाशास्तिकाय के गगन, नभ, सम, विषम आदि रूप में समझना है।
अनेक अभिवचन हैं। जीवास्तिकाय के अभिवचनों में जीव, उपर्युक्त विवेचन से यह फलित होता है कि जात्यपेक्षया ।
प्राण, भूत, सत्त्व, चेता, आत्मा आदि के साथ पुद्गल को भी तो द्रव्य छह ही हैं, किन्तु व्यक्त्यपेक्षया द्रव्य अनन्त हैं। प्रत्येक
लिया गया है, जो यह सिद्ध करता है कि पुद्गल शब्द का प्रयोग वस्तु अपने आपमें एक द्रव्य है। जो भी स्वतन्त्र अस्तित्ववान् ।
प्राचीन काल में जीव के लिए भी होता रहा है। पुद्गलास्तिकाय वस्तु है वह द्रव्य है। इसीलिए द्रव्यापेक्षया जीव भी अनन्त हैं
के अनेक अभिवचन हैं, यथा-पुद्गल, परमाणु-पुद्गल, द्विप्रदेशी और पुद्गल भी अनन्त। काल को तो पुद्गल की अपेक्षा भी यावत् संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी, अनन्त प्रदेशी अनन्तगुणा स्वीकार किया गया है।
आदि।१७ तात्पर्य यह है कि अस्तिकाय एवं द्रव्य का स्वरूप पृथक् काल है। अस्तिकाय तो द्रव्य है, किन्तु जो द्रव्य है वह अस्तिकाय हो, पंचास्तिकाय के अतिरिक्त काल को द्रव्य मानने के संबंध यह आवश्यक नहीं।
में जैनाचार्यों में मतभेद रहा है। इस मतभेद का उल्लेख धर्मास्तिकाय आदि अमूर्त द्रव्य आकाश में एक साथ रहते तत्वाथसूत्रकार उमास्वाति नका
तत्वार्थसूत्रकार उमास्विाति ने 'कालश्चेत्येके' सूत्र के द्वारा किया हुए भी एक-दूसरे को बाधित या प्रतिहत नहीं करते। ये किसी है। आगम में भी दोनों प्रकार की मान्यता के बीज उपलब्ध होते न किसी रूप में एक-दूसरे के सहकारी बनते हैं। यथा
हैं। उदाहरणार्थ भगवान महावीर से प्रश्न किया गया- किमिदं धर्मास्तिकाय से जीवों में आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, भंते! काले त्ति पवुच्चति? भगवन्! काल किसे कहा गया है? वचनयोग और काययोग प्रवृत्त होते हैं। अधर्मास्तिकाय से जीवों भगवान ने उत्तर दिया- जावा चेव अजावा चव त्ति। अर्थात् जाव में स्थित होना, बैठना मन की एकाग्रता आदि कार्य होते हैं।
और अजीव कहा गया है। इसका तात्पर्य है कि काल जीव और आकाशास्तिकाय जीव एवं अजीव द्रव्यों का भाजन या आश्रय
अजीव की पर्याय ही है, भिन्न द्रव्य नहीं। यह कथन एक अपेक्षा है। एक या दो परमाणुओं से व्याप्त आकाशप्रदेश में सौ परमाणु
से समीचीन है। 'लोकप्रकाश' नामक ग्रन्थ में उपाध्याय भी समा सकते हैं तथा सौ परमाणुओं से व्याप्त आकाश प्रदेश विनयविजय जी ने इस आगम
विनयविजय जी ने इस आगम वाक्य के आधार पर तर्क में सौ करोड परमाण भी समा सकते हैं। जीवास्तिकाय से जीवों उपस्थित किया है कि वर्तना आदि पर्यायों को यदि द्रव्य माना में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान, केवलज्ञान, गया तो अनवस्था दोष आ जायेगा। पर्यायरूप काल पृथक द्रव्य मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंग ज्ञान, चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन,
नहीं बन सकता है।१८ आगम में क्योंकि 'अद्धासमय' के रूप
नहा बन सकता है। अवधिदर्शन, केवलदर्शन की अनन्त पर्यायों के उपयोग की प्राप्ति में काल द्रव्य का विवेचन प्राप्त होता है. अत: लोकप्रकाश में होती है। पुद्गलास्तिकाय से जीवों को औदारिक, वैक्रिय, एतदर्थ तर्क उपस्थापित करते हुए कहा हैआहारक, तैजस व कार्मण शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ, १. लोक में नानाविध ऋतुभेद प्राप्त होता है, उसके पीछे मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वासोच्छ्वास को ग्रहण कोई कारण होना चाहिये और वह काल है।१९ करने की प्रवृत्ति होती है।१६
२. आम्र आदि वृक्ष अन्य समस्त कारणों के उपस्थित होने भगवतीसूत्र के बीसवें शतक में धर्मास्तिकाय आदि के पर भी फल से वंचित रहते हैं। वे नानाशक्ति से समन्वित अनेक अभिवचन (पर्यायवाची शब्द) दिए गए हैं, जिनसे इनका कालद्रव्य की अपेक्षा रखते हैं।२० विशिष्ट स्वरूप प्रकाश में आता है। उदाहरणार्थ धर्मास्तिकाय के ३. वर्तमान, अतीत एवं भविष्य का नामकरण भी काल अभिवचन हैं- धर्म या धर्मास्तिकाय, प्राणातिपात-विरमण यावत् द्रव्य के बिना संभव नहीं हो सकेगा तथा काल के बिना पदार्थों परिग्रह-विरमण, क्रोध-विवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक, को पृथक-पृथक नहीं जाना जा सकेगा।२१ ईर्या समिति यावत् उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिघाण
४. क्षिप्र, चिर, युगपद्, मास, वर्ष, युग आदि शब्द भी परिष्ठापनिका समिति, मनोगुप्ति यावत् कायगुप्ति। धर्मास्तिकाय
काल की सिद्धि करते हैं। २२ के ये अभिवचन उसे धर्म के निकट ले आते हैं। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के अधर्म, प्राणातिपात अविरमण यावत् परिग्रह
५. काल को षष्ठ द्रव्य के रूप में आगम में भी निरूपित अविरमण, क्रोध-अविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य अविवेक
किया गया है, यथा- कइ णं भंते! दव्वा? गोयमा। छ दव्वा आदि अभिवचन अधर्मास्तिकाय को अधर्म पाप के निकट ले पण
पण्णत्ता, तं जहाधम्मत्थिकाए, अधम्मस्थिकाए, 0 अष्टदशी / 2290
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________________ य।२३ आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए गया है 'शब्दगुणकमाकाशम्' जबकि जैनदर्शन में आकाश का गुण अवगाहन करना माना गया है। शब्द को तो पुद्गल द्रव्य में इस प्रकार आगम और युक्तियों से काल पथक द्रव्य के सम्मिलित किया गया है। रूप में सिद्ध है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, अप, तेजस् वायु, आकाश, काल के उपकार हैं। द्रव्य का होना ही वर्तना, उसका विभिन्न काल, दिशा, आत्मा और मन को द्रव्य माना जाता है। इनमें से पर्यायों में परिणमन, परिणाम, देशान्तर प्राप्ति आदि क्रिया, आकाश, काल एवं आत्मा को तो पृथक् द्रव्य के रूप में जैन ज्येष्ठ होना परत्व तथा कनिष्ठ होना अपरत्व है। काल को दार्शनिकों ने भी अंगीकार किया है, किन्तु पृथ्वी, अप, तेजस् परमार्थ और व्यवहार काल के रूप में दो प्रकार का प्रतिपादित एवं वायु की पृथक् द्रव्यता मानने का जैनदर्शनानुसार कोई किया जाता है। औचित्य नहीं है, क्योंकि वे सजीव होने पर जीव द्रव्य में और जैन प्रतिपादन का वैशिष्ट्य निर्जीव होने पर पुद्गल द्रव्य में समाहित हो जाते हैं। दिशा कोई पृथक् द्रव्य नहीं है वह तो 'आकाश' की ही पर्याय है। मन को पंचास्तिकायात्मक या षड्द्रव्यात्मक जगत् का प्रतिपादन जैन आगम् वाङ्गमय का महत्वपूर्ण प्रतिपादन है। जीव एवं जैन दार्शनिकों ने पुद्गल में सम्मिलित किया है। पुद्गल अथवा जड़ एवं चेतन का अनुभव तो हमें होता ही है, आगमों में पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय का विस्तार किन्तु इनमें गति एवं स्थिति भी देखी जाती है। गति एवं स्थिति से निरूपण मिलता है। पुद्गल द्रव्य में 'परमाणु' का विवेचन में सहायक उदासीन निमित्त के रूप में क्रमश: धर्मास्तिकाय एवं महत्वपूर्ण है। परमाणु पुद्गल की सबसे छोटी स्वतंत्र इकाई है। अधर्मास्तिकाय की स्वीकृति और उसका जीव एवं पुद्गल के ___परमाणु का जैसा वर्णन आगमों में उपलब्ध होता है वह कारण लोकव्यापित्व स्वीकार करना संग्रत ही प्रतीत होता है। आश्चर्यजनक है। एक परमाणु दूसरे परमाणु से आकार में तल्य इन सबके आश्रय हेतु आकाशास्तिकाय का प्रतिपादन अपरिहार्य होकर भी वर्ण, गंध रस एवं स्पर्श में भिन्न होता है। कोई काला, था। आकाश को लोक तक सीमित न मानकर उसे अलोक में कोई नीला आदि वर्ण का होता है। कोई एक गुण काला, कोई भी स्वीकार किया गया है, क्योंकि लोक के बाहर रिक्त स्थान द्विगुण काला आदि होने से भी उनमें भेद होता है। आकाशस्वरूप ही हो सकता है। पंचास्तिकाय के साथ पर्याय परमाणु की अस्पृशद्गति अद्भुत है। इस गति के कारण परिणमन के हेतु रूप में काल को मान्यता देना भी जैन-परम्परा परमाणु एक समय में लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच को आवश्यक प्रतीत हुआ। इसलिए षड् द्रव्यों की मान्यता सकता है।२४ साकार हो गई। जैन दर्शन के ग्रन्थों में आगे चलकर 'अस्तिकाय' के स्थान यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि धर्मास्तिकाय एवं पर द्रव्य शब्द का ही प्रयोग हो गया तथा वस्तु या सत् की अधर्मास्तिकाय जैन दर्शन का अपना वैशिष्ट्य है। इनका अन्य / व्याख्या 'द्रव्यपर्यायात्मक' स्वरूप से की जाने लगी। किन्तु किसी भारतीय दर्शन में निरूपण नहीं हुआ है। यद्यपि आगमों में अस्तिकाय एवं द्रव्य के स्वरूप में किंचित भेद रहा सांख्यदर्शन में मान्य प्रकृति के रजोगुण से धर्मद्रव्य का तथा है। तमोगुण से अधर्मद्रव्य का साम्य प्रतीत होता है, किन्तु जैन दर्शन संदर्भ में धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय स्वतन्त्र द्रव्य हैं, जबकि चउविहे लोए वियाहिते : दव्वतो लोए, खेत्तओ लोए, सांख्य में ये प्रकृति के स्वरूप हैं। दूसरी बात यह है कि धर्म एवं कालओ लोए, भावओ लोए। -इसिभासियाई, ३१वाँ अधर्म द्रव्य लोकव्यापी हैं और तीसरी बात यह है कि सत्त्वगुण, अध्ययन रजोगुण एवं तमोगुण मिलकर कार्य करते हैं, जबकि जैनदर्शन गोयमा! पंच अस्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, में ये दोनों स्वतंत्ररूपेण कार्य में सहायक बनते हैं। अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, आकाश को द्रव्य रूप में प्राय: सभी दर्शनों ने स्वीकार पोगलत्थिकाए। -व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक 2, उद्देशक 10, किया है, किन्तु आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश भेद जैनेतर दर्शनों में प्राप्त नहीं होते। न्याय, वैशेषिक, वेदान्त 3. से किं तं दव्वाणमे? दव्वणामे छविहे पण्णत्ते, तंजहासांख्य, आदि दर्शनों में 'शब्द' को आकाश द्रव्य का गुण माना धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, 0 अष्टदशी/ 2300
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________________ जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए, अद्धासमए य। अनुयोगद्वार कंचन कांकरिया सूत्र, 218 धर्म का सही स्वरूप द्रष्टव्य, व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक 2, उद्देश्यक 10, सूत्र 7 उत्तराध्ययन सूत्र के आठवें 'कापिलीय' अध्ययन में एक णवरं पएसा अणंता भवियव्वा। -वही जिज्ञासु ने पूछा कि - अधुवे आसासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए / 6. वही, सूत्र 2-6 किं णाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दुग्गई ण गच्छेज्जा / / अनुयोगद्वार सूत्र 218 अर्थात् इस अस्थिर, अशाश्वत और प्रचुर दु:खमय संसार में 8. व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक, 8, उद्देशक 10, सूत्र 23-24 ऐसा कौन-सा कर्म है जिसके फलस्वरूप मैं दुर्गति में न जाऊँ? इस 9. स्थानांग सूत्र, स्थान 4, उद्देशक 3 अध्ययन की 18 गाथाओं में बड़े ही सुन्दर ढंग से धर्म का स्वरूप 10. व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक 25, उद्देशक 2 समझाते हुए विशुद्ध प्रज्ञा वाले कपिल केवली ने कहा कि जो केवली प्ररूपित दया धर्म का पालन करते हैं, वे संसार सागर से तिर जाते 11. प्रज्ञापना सूत्र, पद 5, सूत्र 500-503 हैं। इस धर्म का पालन करने वालों ने ही इस लोक-परलोक को 12. वही, सूत्र 504 सफल किया है और करेंगे। 13. वही, सूत्र 438-439 कई जिज्ञासु प्रश्न करते हैं कि इस लोक और परलोक को 14. गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो। सुखी बनाने के लिए पौषध प्रतिक्रमणादि कष्टकारी क्रियाएँ क्यों करें? भावों को शुद्ध कर लेंगे हमारी मुक्ति हो जायेगी। बंधुओं हर भायणं सव्वदव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं। साधक माता मरुदेवी या भरत चक्रवर्ती जैसा नहीं बन सकता वत्तणा लक्खणो कालो, जीवो उवओगलक्खणो। इसीलिए महामुनिश्वर भगवान महावीर ने सामायिक पौषध नाणेण दंसणेण च सुहेण दुहेण य।। प्रतिक्रमणादि करने का उपदेश दिया है। प्रभु महावीर के बताये हुए सबंधयार उज्जोओ, पभा छायातवे इ वा। सारे नियम राग द्वेष की प्रवृत्तियों को वश में करने के लिए ही हैं। वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ।।-उत्तराध्ययन सूत्र जैन धर्म में साधना की जो पद्धतियाँ बतलाई गई हैं वे इतनी सुन्दर 28.9-12 और बेजोड़ हैं कि उनके द्वारा हम शीघ्र ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। इन पवित्र क्रियाओं में जब तक मन जुड़ा रहेगा तब 15. प्रज्ञापना सूत्र, पद 3 सूत्र 270 तक अपवित्र विचार मन में नहीं आएँगे, सावध भाषा नहीं बोली 16. व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक 13, उद्देशक 4, सूत्र 24-28 जायेगी तथा काया से भी छह काया के जीवों की रक्षा होगी। 17. व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक 20, उद्देशक 2, सूत्र 4-8 इसीलिए ज्ञानी महात्मा कहते हैं कि धार्मिक क्रियाओं को छा जाने अत्र द्रव्याभेदवर्ति-नवर्तनादिविवक्षया। दो जीवन के हर एक क्षण पर, एकमेक हो जाने दो शरीर की एककालोऽपि वर्तनाद्यात्मा जीवाजीवतयोदितः। एक क्रियाओं पर तो कषायों पर शालीन हो जायेगी। पर्यायाणां हि द्रव्यत्वेऽनवस्थापि प्रसज्यते। धार्मिक क्रियाओं का महत्व समझ में आ जाये तो इसमें बहुत पर्यायरूपस्तत्काल: पृथग् द्रव्यं न संभवेत।। - मन लगता है और एक अद्भुत अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है कि इन क्रियाओं के माध्यम से अनंतानंत जीवों को अभयदान प्रदान लोकप्रकाश, सर्ग 28, श्लोक 13 व 15 किया है जिसके फलस्वरूप कर्मों के पुंज के पुंज नष्ट हो रहे हैं। 19. लोकप्रकाश 28.47 धार्मिक क्रियाओं का फल तत्काल दिखाई नहीं दे तो भी विश्वास 20. वही 28.48 क्रियाओं का फल तत्काल दिखाई नहीं दे तो भी विश्वास रखो उसका 21. वही 28.49 फल अवश्य मिलता है क्योंकि ये सर्वांगीण विकास की जड़ है। इनका स्वाध्याय आदि से सिंचन किया जाये तो इसकी शान्ति का दूसरा कोई 22. वही 28.53 फल तीन लोक में नहीं है। 23. लोकप्रकाश 28.55 के पश्चात् तीर्थंकरों को तीर्थंकर बनाने वाली, गणधरों को गणधर बनाने 24. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र वाली, आचार्यों को आचार्य बनाने वाली यह धर्म करणी ही है। अंत:करण से धार्मिक क्रियाओं को करने वाला इस लोक में भी आनंद और शांति में रमण करने के कारण सुखी होता है और परलोक में भी सुखी रहता है क्योंकि मोक्ष मार्ग पर चलने वाला रास्ते में भी कहीं विश्राम करता है तो उत्तम स्थान यानी वैमानिक में ही करता है। इसलिए हमें दया, संवर, सामायिक, पौषधादि करके हमें अपनी घड़ियों को सफल करना है। 0 अष्टदशी / 2310