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प्रतिपादित किया गया है। इसका कारण परमाणु को भी द्रव्य के जाते हैं। आकाशास्तिकाय के गगन, नभ, सम, विषम आदि रूप में समझना है।
अनेक अभिवचन हैं। जीवास्तिकाय के अभिवचनों में जीव, उपर्युक्त विवेचन से यह फलित होता है कि जात्यपेक्षया ।
प्राण, भूत, सत्त्व, चेता, आत्मा आदि के साथ पुद्गल को भी तो द्रव्य छह ही हैं, किन्तु व्यक्त्यपेक्षया द्रव्य अनन्त हैं। प्रत्येक
लिया गया है, जो यह सिद्ध करता है कि पुद्गल शब्द का प्रयोग वस्तु अपने आपमें एक द्रव्य है। जो भी स्वतन्त्र अस्तित्ववान् ।
प्राचीन काल में जीव के लिए भी होता रहा है। पुद्गलास्तिकाय वस्तु है वह द्रव्य है। इसीलिए द्रव्यापेक्षया जीव भी अनन्त हैं
के अनेक अभिवचन हैं, यथा-पुद्गल, परमाणु-पुद्गल, द्विप्रदेशी और पुद्गल भी अनन्त। काल को तो पुद्गल की अपेक्षा भी यावत् संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी, अनन्त प्रदेशी अनन्तगुणा स्वीकार किया गया है।
आदि।१७ तात्पर्य यह है कि अस्तिकाय एवं द्रव्य का स्वरूप पृथक् काल है। अस्तिकाय तो द्रव्य है, किन्तु जो द्रव्य है वह अस्तिकाय हो, पंचास्तिकाय के अतिरिक्त काल को द्रव्य मानने के संबंध यह आवश्यक नहीं।
में जैनाचार्यों में मतभेद रहा है। इस मतभेद का उल्लेख धर्मास्तिकाय आदि अमूर्त द्रव्य आकाश में एक साथ रहते तत्वाथसूत्रकार उमास्वाति नका
तत्वार्थसूत्रकार उमास्विाति ने 'कालश्चेत्येके' सूत्र के द्वारा किया हुए भी एक-दूसरे को बाधित या प्रतिहत नहीं करते। ये किसी है। आगम में भी दोनों प्रकार की मान्यता के बीज उपलब्ध होते न किसी रूप में एक-दूसरे के सहकारी बनते हैं। यथा
हैं। उदाहरणार्थ भगवान महावीर से प्रश्न किया गया- किमिदं धर्मास्तिकाय से जीवों में आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, भंते! काले त्ति पवुच्चति? भगवन्! काल किसे कहा गया है? वचनयोग और काययोग प्रवृत्त होते हैं। अधर्मास्तिकाय से जीवों भगवान ने उत्तर दिया- जावा चेव अजावा चव त्ति। अर्थात् जाव में स्थित होना, बैठना मन की एकाग्रता आदि कार्य होते हैं।
और अजीव कहा गया है। इसका तात्पर्य है कि काल जीव और आकाशास्तिकाय जीव एवं अजीव द्रव्यों का भाजन या आश्रय
अजीव की पर्याय ही है, भिन्न द्रव्य नहीं। यह कथन एक अपेक्षा है। एक या दो परमाणुओं से व्याप्त आकाशप्रदेश में सौ परमाणु
से समीचीन है। 'लोकप्रकाश' नामक ग्रन्थ में उपाध्याय भी समा सकते हैं तथा सौ परमाणुओं से व्याप्त आकाश प्रदेश विनयविजय जी ने इस आगम
विनयविजय जी ने इस आगम वाक्य के आधार पर तर्क में सौ करोड परमाण भी समा सकते हैं। जीवास्तिकाय से जीवों उपस्थित किया है कि वर्तना आदि पर्यायों को यदि द्रव्य माना में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान, केवलज्ञान, गया तो अनवस्था दोष आ जायेगा। पर्यायरूप काल पृथक द्रव्य मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंग ज्ञान, चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन,
नहीं बन सकता है।१८ आगम में क्योंकि 'अद्धासमय' के रूप
नहा बन सकता है। अवधिदर्शन, केवलदर्शन की अनन्त पर्यायों के उपयोग की प्राप्ति में काल द्रव्य का विवेचन प्राप्त होता है. अत: लोकप्रकाश में होती है। पुद्गलास्तिकाय से जीवों को औदारिक, वैक्रिय, एतदर्थ तर्क उपस्थापित करते हुए कहा हैआहारक, तैजस व कार्मण शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ, १. लोक में नानाविध ऋतुभेद प्राप्त होता है, उसके पीछे मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वासोच्छ्वास को ग्रहण कोई कारण होना चाहिये और वह काल है।१९ करने की प्रवृत्ति होती है।१६
२. आम्र आदि वृक्ष अन्य समस्त कारणों के उपस्थित होने भगवतीसूत्र के बीसवें शतक में धर्मास्तिकाय आदि के पर भी फल से वंचित रहते हैं। वे नानाशक्ति से समन्वित अनेक अभिवचन (पर्यायवाची शब्द) दिए गए हैं, जिनसे इनका कालद्रव्य की अपेक्षा रखते हैं।२० विशिष्ट स्वरूप प्रकाश में आता है। उदाहरणार्थ धर्मास्तिकाय के ३. वर्तमान, अतीत एवं भविष्य का नामकरण भी काल अभिवचन हैं- धर्म या धर्मास्तिकाय, प्राणातिपात-विरमण यावत् द्रव्य के बिना संभव नहीं हो सकेगा तथा काल के बिना पदार्थों परिग्रह-विरमण, क्रोध-विवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक, को पृथक-पृथक नहीं जाना जा सकेगा।२१ ईर्या समिति यावत् उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिघाण
४. क्षिप्र, चिर, युगपद्, मास, वर्ष, युग आदि शब्द भी परिष्ठापनिका समिति, मनोगुप्ति यावत् कायगुप्ति। धर्मास्तिकाय
काल की सिद्धि करते हैं। २२ के ये अभिवचन उसे धर्म के निकट ले आते हैं। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के अधर्म, प्राणातिपात अविरमण यावत् परिग्रह
५. काल को षष्ठ द्रव्य के रूप में आगम में भी निरूपित अविरमण, क्रोध-अविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य अविवेक
किया गया है, यथा- कइ णं भंते! दव्वा? गोयमा। छ दव्वा आदि अभिवचन अधर्मास्तिकाय को अधर्म पाप के निकट ले पण
पण्णत्ता, तं जहाधम्मत्थिकाए, अधम्मस्थिकाए, 0 अष्टदशी / 2290
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