Book Title: Appahiyam Kayavvam Author(s): Priyam Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 3
________________ अप्पहियं कायव्वं संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन संयमप्राप्ति का संबंध न उम्र से है, न अवस्था से है, अपि तु वैराग्य से है। जब वैराग्य होता है, तब संसार छूट जाता है। व्यक्ति विवाहित हो या अविवाहित, उसके बेटे हो या ना हो, इससे कोई फर्क नहीं पडता । हा, संयमप्राप्ति के लिये कुछ और योग्यता भी होनी चाहिये, जिसमें खास करके महिलाओं के लिये शास्त्र में दो बातें बतायी है। गुवी सबालवच्छा संयमार्थिनी महिला गर्भवती नहीं होनी चाहिये, और उसका बेटा अत्यंत छोटा नहीं होना चाहिये । यतः इन परिस्थिति में बच्चों की पालना एवं जिनशासन की अपभ्राजना की समस्या खड़ी होती है। मार्क करने जैसी चीज़ यह है कि शास्त्रों ने ऐसा नहीं कहा कि विवाहिता नारी दीक्षा के लिये अयोग्य है। भले ही उसने विवाह किया, बंधन को स्वीकारा। लेकिन यह बन्धन तब तक ही है, जब तक वह संसार में है । इस बन्धन का अर्थ यह नहीं है कि वह संयम लेने की अधिकारिणी नहीं है । इस बन्धन का अर्थ तो केवल इतना ही है कि विवाह के बाद उस महिला को अपने पति के अतिरिक्त सभी पुरुषों को अपने पिता, भाई या बेटे के रूप मे ही समजना है। दायित्व अनेकों के प्रति होते है। परिवार के प्रति... समाज के प्रति... देश के प्रति... शरीर के प्रति... पडोशीओं के प्रति... मित्रों के प्रति .... वगैरह वगैरह... जब हमारे पास दो दायित्व एक साथ उपस्थित होते है, जब उन में से एक ही दायित्व को निभाना संभव होता है, तब हम तुलना करते है कि कौनसा दायित्व अधिक महत्त्वपूर्ण है? इस महत्त्वपूर्णता का आधार भी यही होता है कि हमें किस दायित्व को निभाने से ज्यादा लाभ होगा ? अप्पहियं कायव्वं १५ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन परिशिष्ट संयमप्राप्ति की यह सारी बातें सारी प्रेरणा उन जीवों के लिये है, जो संयम प्राप्ति के लिये योग्य हो। जो अति बाल (८ साल से छोटे) हो, जाये अति वृद्ध (६० या ७० साल से बडे) हो, जिन पर कर्जा हो, जो विकलांग हो, ऐसी कुल ४८ प्रकार की व्यक्तिओं को श्रीनिशीथ आगमसूत्र में दीक्षा लेने के लिये अयोग्य बताया है। दीक्षा की भावना के अधिकारी सभी हो सकते है। पर दीक्षा की प्राप्ति की योग्यता सब की नहीं हो सकती । यहा लिखे है उसके अलावा भी कई प्रश्न कई समस्यायें कई परिस्थितियाँ हो सकती है। हर समस्या का यही समाधान हो, यह तो संभव नहीं है। अतः प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपने सिर पर एक संविज्ञ गीतार्थ सद्गुरु जरूर रखे। संयमी एवं ज्ञानी ऐसे सद्गुरु के पास से अपनी हर समस्या का भी समाधान पाये एवं अपनी योग्यता का भी ज्ञान पाये। हर श्राविका के सिर पर ऐसे कोई साध्वीजी भगवंत होने चाहिये। हर श्रावक के सिर पर ऐसे कोई साधु भगवंत होने चाहिये । सद्गुरु के प्रति संपूर्ण समर्पण भाव से ही साधुजीवन या श्रावकजीवन सफल हो सकता है। परम पावन श्री सूत्रकृतांग आगम में कहा है - गुरुणो छंदाणुवत्तया विरया तिण्ण महोघमाहितं । जो 'सद्गुरु के प्रति संपूर्णतया समर्पित है ऐसी विरत आत्मा संसार सागर को तैर जाती है। वास्तव में इस समर्पण भाव में ही सारा का सारा मोक्षमार्ग समा गया है। - -Page Navigation
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