Book Title: Appahiyam Kayavvam Author(s): Priyam Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 6
________________ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन १२ अप्पहियं कायव्वं आराधना पाकर चरम केवली श्रीजम्बूस्वामी उत्कृष्ट सुखमय मोक्ष को प्राप्त कर गये, उसके मूल में थी संयमप्राप्ति के लिये पूर्वभव में की हुयी प्रबल साधना... प्रबल पुरुषार्थ ।। तो वास्तव में तो यह अपवाद भी अपवाद नहीं है। फिर से बात तो यही आ जाती है कि वैराग्य को बाँधना संभवित नही है. वैराग्य अपना रास्ता निकाल ही लेता है। प्रायः हमारे ऐसे कोई निकाचित कर्म होते नहीं, केवल पुरुषार्थ में कमी होती है। यदि हम सोचते है कि हम कुछ नही कर सकते, तो वास्तव में हम कुछ नही कर सकेंगे। यदि हम सोचते है कि हम बहुत कुछ कर सकते है, तो वास्तव में हम बहुत कुछ कर सकते है। Whether you think you can do or you can't in both you are right. you can do what you think you can do. you can't do what you think you can't do. संयमप्राप्ति अविवाहित के लिये आसान होती है। विवाहित के लिये मुश्किल होती है। बेटा-बेटी वालों के लिये अशक्य होती है। ऐसा हम मानते है। वास्तव में मुश्किल हम उसे कहते है, जिसमें सामान्य कार्य से थोडा ओर समय लगता है। और अशक्य हम उसे कहते है, जिस में उससे भी थोडा ओर समय लगता है। तात्पर्य यह है कि मुश्किल या अशक्य जैसी कोई चीज ही नहीं होती। हमारी भावना की दुर्बलता ही प्रायः कार्य को मुश्किल या अशक्य बना देती है। संयमप्राप्ति में बाहर जितनी भी रुकावट है, वह सभी निमित्तमात्र है । मूल रुकावट तो केवल एक ही है, हमारा चारित्र मोहनीय कर्म । जो हमने ही बाँधा है। जिसे हम ही काट सकते है। सम्यग् अभिलाषा एवं सम्यक् पुरुषार्थइनके लिये न कुछ मुश्किल है, न कुछ अशक्य है। दीक्षा हो या मोक्ष हो,वह संयोग के अधीन नहीं है। हमारी सच्ची इच्छा के अधीन है। सच्ची इच्छा हमेशा सक्रिय-Active होती है। वह सफल होकर ही अप्पहियं कायव्वं ५ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन चल रहा है एवं अनंत काल तक चलता रहेगा। सैकड़ों विघ्नों की उपस्थिति में भी दीक्षार्थी दीक्षा लेते रहे है और लेते रहेंगे। यदि सभी के बारे में सोचा जाये, तो संयम का तो क्या ? संसार का भी कोई काम नहीं हो सकेगा। सभी को खुश करना संभव ही नही है । हृदयप्रदीप में कहा है नानापथे सर्वजनः प्रवृत्तः, को लोकमाराधयितुं समर्थः ? ॥ सभी जन अपने अपने मार्ग में प्रवृत्त होते है। सभी को खुश करने का सामर्थ्य भला किस में हो सकता है? योगसार में प्राचीन परमर्षि कहते है - तोषणीयो जगन्नाथः, तोषणीयश्च सद्गुरुः । तोषणीयस्तथा स्वात्मा, किमन्यैर्बत तोषितैः ।। खुश करना है तो भगवान को खुश करो, खुश करना है तो सद्गुरु को खुश करो । खुश करना है तो आत्महित के आचरण से आपनी आत्मा को खुश करो । दुसरों को खुश करके हमें क्या फायदा होनेवाला है? महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा कहते है - मल्लिनाथ तुज रीझ जन रीझे न हुई री।। दोय रीझणनो उपाय साहमु काई न जुई री॥ हे मल्लिनाथ भगवान! लोग को खुश करने से आप खुश नहीं होनेवाले । ऐसा तो कोई उपाय ही नहीं, जिससे लोगों को भी खुश किया जा सके एवं आपको भी खुश किया जा सके। शांतिनाथजी, कंथनाथजी, अरनाथजी, भरत चक्रवर्ती यह सब मोक्ष में गये थे । जब कि इन सभी की जो जो पट्टरानी थी वह मरकर छठवी नर्क में गयी थी। तो क्या उन्होंने संयम स्वीकार कर पाप किया? क्यां पट्टरानी के दोष उनके सिर पर आयेंगे? बिल्कुल नहीं । हर जीव अपनी भवितव्यादि से नियत पाप और नियत दुर्गति का भागी होता है, किसी के दोष से किसी को पाप लगता हो, तो कर्म के कर्ता एवं भोक्ता की सारी की सारी व्यवस्था ही लुप्त हो जायेगी एवं धर्म करने का कोई अर्थ ही नही रहेगा।Page Navigation
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