Book Title: Appahiyam Kayavvam Author(s): Priyam Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 8
________________ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन १० अप्पहियं कायव्वं जिसमें सर्व प्रथम संपूर्ण परिवार को प्रतिबोध करने का प्रयास करना चाहिये । यह संभव न हो तो परिवार की विशेषतः परिवारनायक की सम्मति पाने का प्रयास करना चाहिये। स्वयं ही परिवार के नायक होने पर यदि परिवार घरनिर्वाह की चिता से संयम में रुकावट कर रहा हो, तो उनके लिये निर्वाह का स्थायी साधन बनाकर संयम लेना चाहिये। यदि वे मोहवश संयम की अनुज्ञा न दे रहे हो, तो भीतर में सरल रहकर बाहरी छल से भी उन्हें सम्मति देने के लिये सज्ज करना चाहिये। जैसे की अशुभ स्वप्न का प्रतिपादन, ज्योतिषी / वैद्य / डोक्टर द्वारा अपनी आयु अत्यंत अल्प है, ऐसा प्रमाणित करवाना, संसार में अत्यंत शारीरिक वेदना का प्रदर्शन करना, इत्यादि। पंचसूत्र में कहा है अण्णा अणुवहे चेव उवहिजुत्ते सिया धम्माराहणं खुहियं सव्वसत्ताणं यदि सरलता से संयम की अनुमति न मिले, तो भीतर में सरलता के साथ ही बाहर छल करे, धर्म की आराधना हो, उसी में सभी जीवों का हित है, अन्यथा सभी का अहित निश्चित है। छलमय संसार में डुबने के बजाय संयमप्राप्ति के लिये अल्प छल करना लाखों गुना अच्छा है। वास्तव में तो वह छल ही नहीं है। यतः उसका परिणाम अच्छा है। ज्ञानीओं कहते है - अमायी अपि भावेन, मायी अपि भवेत् क्वचित् । पश्येत् स्वपरयोर्यत्र, सानुबन्धं हितोदयम् ॥ भाव से सरल भी कभी व्यवहार से छल करना चाहिये, जहा स्व ओर पर का परंपरा से हित संभव हो। तथापि यदि अनुमति नहीं ही मिले, तो बिना अनुमति भी संयम का ग्रहण करना ही चाहिये । जो व्यक्ति हमारी दुर्गति का और भवभ्रमण का दायित्व नही ले सकते, उनके लिये संसार में रह जाना यह अपने आप को धोखा देने जैसा है। पंचसूत्र में संयमग्रहण - विधि में अंतिम रास्ता बिना अनुमति भी दीक्षा लेना बताया है। गुरुदेव की एक पुस्तक है उच्च प्रकाशना - अप्पहियं कायव्वं ७ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन संभव है कि परिवार के अन्य सदस्यों को भी संयम की अभिरुचि हो, कम से कम उनका धार्मिक स्तर उपर आये ऐसी तो संभावना है ही । दीक्षार्थी यदि स्वयं मोह के वश हो जाये, तो उसमें तो उसका भी अहित ही है, और परिवार का भी अहित ही है। एसा भी हो सकता है, कि क्लिष्ट कर्मों के उदय से परिवार अधर्मी हो । दीक्षार्थी की दीक्षा के बाद भी वह अधर्मी ही रहे या ज्यादा अधर्म करे । किन्तु यह कोई दीक्षा न लेने का हेतु नहीं है। पंचसूत्र में कहा है - सव्वे जीवा पुढो पुढो, ममत्तं बंधकारणं । सभी जीव अलग अलग है। सब के अपने अपने रास्ते, सबकी अपनी अपनी भवितव्यता है। इन जीवों पर ममत्व करने से अपनी ही आत्मा कर्मों के बंधन पाती है, और ज्यादा दुःखी होती है। उन कर्मों के उदय से दुःखी होती हुई अपनी आत्मा को वे जीव बचानेवाले नहीं है । संसार से विरक्त होकर एक व्यक्तिने दीक्षा ली। उसकी पत्नी दुराचार गर्भवती हुई थी । बिचरण करते करते वे महात्मा अपने सांसारिक गाँव में आये। योगानुयोग अपने ही सांसारिक घर में गोचरी लेने गये। घर में वह पत्नी अकेली थी। उसने सोचा की यदि मेरे पति संयम छोड़कर वापस संसार में आ जाये, तो मुज पर दुराचार का कलंक नहीं आयेगा। महात्मा को अंदर रसोईघर तक बुलाकर उसने मुख्य द्वार बंद कर दिया। महात्मा को लुभाने की हर कोशिश कर के देखी । फिर भी महात्मा निश्चल रहे । महात्माने उसे बहुत समजाया कि "विषयसेवन नर्क का रास्ता है। व्रतभंग महापाप है। मुजे संसार के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं है।" तथापि वो नही समज़ी। उसने महात्मा को धमकी दी कि यदि उन्होंने उसकी बात नहीं मानी तो वह अपने कपडे फाड़कर शोर मचाकर लोगों को इकट्ठा करेगी और उन पर झूठा आरोप लगायेगी । महात्माने सोचा की बदनामी का तो मुज़े कोई डर नहीं है, परंतु यह बदनामी केवल मेरी ही नहीं, जिनशासन की भी होगी। यह तो में हरगिज़ नहीं होने दूँगा। क्यों किया जाये ? सोचकर महात्माने उसे कहा कि मुजे थोडी देर के लिये उपर केPage Navigation
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