Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

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Page 9
________________ मन्त्रयान, बज्रयान और सहजयान के रूप में विकसित होता हुमा, नए-नए तत्वों को ग्रहण करता गया, किस प्रकार चौरासी सिद्धों-विशेष रूप से सरहपा, कण्हपा आदि-ने मध्यकालीन साधना को व्यापक रूप से प्रभावित किया, इसी को चर्चा इस अध्याय का विषय है। जैन कवि योगीन्दु और सिद्ध सरहपाद समवर्ती थे। दोनों भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के होते हुए भी एक ही सत्य पर पहुंचे थे। दोनों की शब्दावली और वर्णन शैतो बहुत कुछ समान थी। नवें अध्याय में जैन काव्य और नाथ योगी सम्प्रदाय की तुलना है। नाथ सिद्ध हठयोगी थे। वे शिव शक्ति के सामरस्य की बात करते थे। जैन कवियों पर इनकी विचार पद्धति का भी प्रभाव पड़ा था। मुनि रामसिंह ने, जो गोरखनाथ के समकालीन थे, उनके अनेक शब्दों को ग्रहण कर लिया था। दसवें अध्याय में जैन काव्य और हिन्दी सन्त काव्य का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। हिन्दी सन्त काव्य, विशेष रूप से कवीर पर विचार करत हुए विद्वानो न अनेक प्रकार के निष्कप निकाले हैं। कबीर के काव्य में बाह्य-विधान-खण्डन की प्रवृत्ति को देखकर कुछ लोगा ने कवार पर अनेक प्रकार के आरोप लगाए हैं। किन्तु ज्यों-ज्यों कवोर के पूर्ववर्ती सिद्ध, नाथ और जैन काव्य का अध्ययन होता जा रहा है, त्यों-त्यों यह स्पष्ट होता जा रहा है कि कबीर ने जो कुछ कहा, वह संकीर्ण विचार से नहीं अथवा वैसो बातें सर्वप्रथम कहने वाले कबीर नहीं थे, अपितु उनके बहुत पहले लगभग छ:-सात सौ वर्षों से उसी प्रकार के विचार व्यक्त होने लगे थे। वस्तुतः कबीर के विचार मध्य कालीन धर्म साधना का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं । इधर कुछ लोगों ने कबीर पर सिद्धों और नाथों का प्रभाव अवश्य स्वाकार किया हैं। लेकिन इस अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो गया है कि कबीर जन कवियां, विशेष रूप से योगान्ट मनि रामसिंह. से काफी प्रभावित थे। इन तानों में अदभुत विचार-साम्य है। यही नहीं, कबीर ने भी जैन रहस्यवादी मुनियों को प्रभावित किया था। सन्त आनन्दघन के प्रेरणा स्रोत कबीर ही प्रतीत होते हैं। यदि आनन्दघन की रचनामों से उनका नाम निकालकर कवोर का नाम जोड़ दिया जाय तो उनमें और कबोर को रचनाओं में कोई अन्तर नहीं परिलक्षित होगा। इसी प्रकार बनारसीदास और संत सुन्दरदास, जो समकालीन थे, एक ही प्रकार की बातें करते हुए दिखाई पड़ते हैं। ___ग्यारहवें अध्याय खंड ५) में मध्यकालीन धर्म साधना में प्रयुक्त कतिपय ' शब्दों का इतिहास दिया गया है। सहज, समरस, महासुख, नाम-सुमिरन, अजपा, निरंजन, अवधू आदि कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका प्रयोग सिद्ध, नाथ, जैन और हिन्दी सन्त कवि और आचार्य करते रहे हैं। लेकिन एक विचित्र बात यह है कि इन शब्दों के अर्थ हर सम्प्रदाय में इच्छानुसार बदल दिए गए हैं। वस्तुतः इन कतिपय शब्दों में मध्यकालीन धर्म साधना का पूरा इतिहास केन्द्रित हो गया है। बारहवें अध्याय में पूरे अध्ययन के निष्कर्ष हैं। नए परिणामों का सार है। प्रबन्ध की मौलिकता पर दो शब्द है। अन्त में एक परिशिष्ट संलग्न

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