Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

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Page 5
________________ भूमिका 'रहस्यवाद' शब्द का प्रयोग हिन्दी में नया ही है। यह अंग्रेजी के 'मिस्टीसिज्म' शब्द के तौल पर गढ़ लिया गया है। ऋपियों और सन्तों ने कहा है कि यह एक ऐसी अनुभूति है जो अनुभव करने वाला ही जान पाता है, जिस बोल-चाल की भाषा का हम नित्य प्रयोग करते हैं वह उसे अभिव्यक्त करने में असमर्थ है, क्योंकि वह भाषा जिस वाह्य जगत की यथार्थता को व्यक्त करने के लिए बनो है, वह उस श्रेणी के अनुभव का विषय नहीं है। यह एक प्रकार का ऐसा सभ्वेदन है जो तदव्यावृति के द्वारा कुछ-कुछ बताया तो जा सकता है, लेकिन स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं किया जा सकता। वह स्वसंवेदन ज्ञान है। इसी स्वसंवेद्य का अपभ्रंश रूप 'सुसंवेद' था, जो परवर्ती काल के संतों तक आते-आते 'सुछवेद' से बढ़ता हुया 'सूक्ष्मवेद' बन गया। यह आध्यात्मिक अनुभूति है। सभी मतों के पहुंचे हुए सिद्ध कहते हैं कि यह गंगे का गुड़ है, उसे प्रकट करने में मन, बुद्धि, वाणी सभी असमर्थ हैं। जैन साधकों ने भी अपने ढंग से इस बात को कहने का प्रयास किया है। आयुष्मान श्री बासूदेव सिंह ने अपभ्रंश और हिन्दी में लिखी गयी जैन सिद्धों की वाणियों में इस चरम आध्यात्मिक अनुभूति का अध्ययन किया है। मुझे प्रसन्नता है कि उनका प्रयत्न समादृत होकर प्रकाशित हो रहा है। इस विषय पर हिन्दी में ही नहीं, अन्य भाषाओं में भी कम ही काम हुआ है। बहत से लोग तो यह सुनकर ही आश्चर्य करते हैं कि जैन धर्म से भी रहस्यवाद का कोई सम्बन्ध हो सकता है। परन्तु जो लोग ऐसा सोचते हैं, वे सुनी-सुनाई बातों के आधार पर जैन धर्म के सम्बन्ध में धारणा बनाए होते हैं। वस्तुतः दर्शन के तर्कसंगत विश्लेषण के द्वारा आध्यात्मिक अनुभूति को समझने का प्रयत्न दुराशा मात्र है। दर्शन केवल इंगित भर करता है। हर दर्शन के पहँचे हए द्रष्टा अन्ततोगत्वा उसी परम सत्य का साक्षात्कार करते हैं। उस अनुभूति को व्यक्त करने में वाणी समर्थ नहीं होती, केवल इंगित मात्र से वह कुछ बता पाती है। जैन मरमी सन्तों की आध्यात्मिक अनुभूति अन्य सन्तों के समान ही थी। आयुष्मान् डा० बासुदेव सिंह जी ने जैन मरमी सन्तों की इन आध्यात्मिक अनुभूतियों के रसास्वादन का अवसर देकर सहृदय मात्र को प्रानंदित किया है। मैं हृदय से इस कृति का स्वागत करता हूँ। हजागेप्रसाद द्विवेदी टैगोर प्रोफेसर आफ इण्डियन लिट्रेचर तथा चण्डीगढ़ अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, १.-१-६५ ई. पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़-३

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