Book Title: Aparajit Pruccha Me Chitrit Samajik Dasha Author(s): Jainarayan Pandey Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 3
________________ १२६ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन अपराजित पृच्छा में सामन्तों का वर्गीकरण इस प्रकार मिलता हैपद नाम ग्रामसंख्या १. महामंडलेश्वर १,००,००० २. माण्डलिक ५०,००० ३. महासामन्त २०,००० ४. सामन्त १०,००० ५. लघु सामन्त ५,००० ६. चतुरंशिक १,००० इसके पश्चात् ५०, ३०, ३,२ तथा एक ग्राम वाले सामन्तों का स्थान था । सरसरी तौर पर देखने से तो यह क्रम विभाजन एक सैद्धान्तिक विवेचन मात्र लगता है जिसकी वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं था। लेकिन विचारणीय बात यह है कि अपराजितपृच्छा वास्तुशास्त्र से सम्बद्ध एक कृति है। उसमें वर्णित स्थिति यथार्थ के अत्यन्त निकट मानी जा सकती है। सामन्तवादी प्रवृत्ति का परोक्ष रूप से प्रभाव सामाजिक जीवन पर भी परिलक्षित होता है। अश्वलक्षण शालानामाशीतितं सूत्र में (८० : ७–१३ श्लोक) अश्वों का वर्गीकरण चातुर्वण्य व्यवस्था के आधार पर किया गया है। ___इस दृष्टि से यह वर्गीकरण अनोखा कहा जा सकता है, क्योंकि अन्यत्र मानवीय गुणों का आरोपण पशुओं पर नहीं किया गया है। प्रत्युत पशुओं के शारीरिक सौष्ठव का उपयोग मनुष्यों के शारीर-गठन के प्रसंग में अनेकशः हुआ है। अश्वों का वर्गीकरण विप्र, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र (विप्रक्षत्रियविशद्राः) इन चार कोटियों में किया गया है। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसा क्यों किया गया है ? अथवा क्या वर्ण व्यवस्था ने समाज के हर क्षेत्र को इतनी बुरी तरह से जकड़ लिया था कि भुवनदेव जैसे कृती एवं सूरि ने भी अनजाने ही इसी शब्दावली का प्रयोग किया है ? क्या समाज के विचारवान् और चिंतनशील लोग वर्ण व्यवस्था के ८. यादव, बृजनाथ सिंह सोसाइटी एन्ड कल्चर इन नादर्न इंडिया (इलाहाबाद १९७३) पृ० १४९ एवं १५१ । ९. मांकड़ पी० ए० पाश्वोद्धरित (१९५०) पृ० २०१ । १०. अपराजितपृच्छा (सं. मांकड) (बड़ौदा १९५०) पृ० २०१ सूत्र ८०; श्लोक १४ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..Page Navigation
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