Book Title: Aparajit Pruccha Me Chitrit Samajik Dasha
Author(s): Jainarayan Pandey
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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________________ अपराजितपृच्छा में चित्रित सामाजिक दशा १२५ सरकार की अध्यक्षता में लगभग इसी समय कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के उच्च शोध संस्थान में 'प्राचीन भारत में सामन्तवाद' विषय पर एक गोष्ठी (सेमिनार) का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी की कार्यवाही का प्रकाशन डा. दीनेश चन्द्र सरकार के सम्पादन में लैण्ड सिस्टम एन्ड फ्यूडलिज्म इन एंश्येन्ट इंडिया (कलकत्ता, १९६६) नाम से किया गया है। इस ग्रंथ के विद्वान् सम्पादक सरकार भारत में सामंतवाद का अस्तित्व नहीं मानते हैं। सामन्त-प्रणाली एवं जाति प्रथा-अपराजितपृच्छा में सामन्त प्रणाली के बारे में अपेक्षाकृत एक विस्तृत झलक देखने को मिलती है तथा इसका प्रभाव तत्कालीन वैचारिक जगत में अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है। लेकिन अपराजितपृच्छा में प्राप्त साक्ष्यों के विवेचन के पूर्व 'सामन्त' शब्द के बारे में किंचित् विचार कर लेना अप्रासंगिक न होगा। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में सामन्त शब्द का व्यवहार पड़ोसी राजा के अर्थ में किया है। अशोक के कतिपय शिलाप्रज्ञापनों में भी इस शब्द का इसी उपर्युक्त अर्थ में प्रयोग किया गया है; उदाहरणार्थ कालसी (2.5), धौली (22) तथा जौगड़ा (22) शिलाप्रज्ञापनों में ।' मनु एवं याज्ञवल्क्य की स्मृतियों में इस शब्द का प्रयोग एक भिन्न-अर्थ में किया गया है। यहाँ पर सामंत शब्द समीपस्थ भूस्वामी के अर्थ में आया है। स्मृतियों के टीकाकारों ने भी सामंत शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया है। अश्वघोष के बुद्धचरित में इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अधीनस्थ करद शासक के अर्थ में मिलता है । साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों के समवेत प्रमाणों से यही प्रतीत होता है कि गुप्तकाल (२५० ई. से ५५० ई.) और उसके उपरान्त इस शब्द का प्रयोग अधीनस्थ शासक के अर्थ में होने लगता है कालान्तर में इस शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग तो सामन्त के अर्थ में ही होता रहा लेकिन संकुचित और विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में इस शब्द का प्रयोग सामन्तों के वर्ग विशेष के अर्थ में होने लगा था। ३. सरकार डी. सी. लैण्ड सिस्टम एन्ड फ्यूडलिज्म इन एन्श्येन्ट इंडिया (कलकत्ता 1966) पृ. 57-62 एवं 124-126 वे सामंतवाद शब्द के स्थान पर जमींदारी (लैण्डलॉडिज्म) शब्द के प्रयोग के पक्ष में है। ४. कांगले, कौटिल्यीय अर्थशास्त्र ए स्टडी, (भाग 111) बम्बई, 1965, पृ. 250. ५. पाण्डेय, राजबली, अशोक के अभिलेख । ६. शर्मा, रामशरण, पाश्र्वोद्धरित, 1965 पृष्ठ 24 । ७. अग्रवाल वासुदेवशरण, हर्षचरित । एक सांस्कृतिक अध्ययन (पटना, 1953) परिशिष्ट सं० २। ।... परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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