Book Title: Aparajit Pruccha Me Chitrit Samajik Dasha
Author(s): Jainarayan Pandey
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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________________ च अपराजितपृच्छा में चित्रित सामाजिक वशा. . डॉ. जयनारायण पाण्डेय - जैन धर्म, भारत के धर्मों में से एक होते हुए भी, आज भी एक जीवन्त धर्म है। इस धर्म का भारत के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है और अभी भी है । जैन आचार्यों एवं सूरियों ने जिस साहित्य की सर्जना की है; यद्यपि वह प्रधानरूपेण धार्मिक एवं दार्शनिक विषयों से सम्बद्ध है, लेकिन उसके सम्यक् अनुशीलन और परिशीलन से सामाजिक प्रवृत्तियों एवं संस्थाओं के बारे में भी समुचित प्रकाश पड़ता है। प्रस्तुत निबंध में 'अपराजितपृच्छा' नामक ग्रंथ के आधार पर तत्कालीन सामाजिक-जीवन का चित्रण प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयत्न कर रहा हूँ। भुवनदेवकृत अपराजितपृच्छा वास्तुशास्त्र का एक ग्रंथ है। इस ग्रंथ का रचना काल बारहवीं शताब्दी ई. से तेरहवीं शताब्दी ई. के पूर्वार्द्ध के मध्य माना गया है।' इस ग्रंथ में प्राप्य राजकीय उपाधियों के आधार पर यह संभावना की गई है कि इसकी रचना गुजरात अथवा राजस्थान के क्षेत्र में की गई होगी। इसीलिए यह भी कहा गया है कि ग्रंथ मुख्यरूप से तत्कालीन पश्चिम भारत के जन-जीवन के बारे में ही प्रधानरूपेण प्रकाश डालता है। इस ग्रंथ का सम्यक अनुशीलन होना अभी शेष है। यद्यपि विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने विशिष्ट अनुसंधानों के सन्दर्भ में तथा शोध-प्रबंधों में इसके कतिपय पक्षों का विश्लेषण किया है। विवेच्य ग्रंथ के रचनाकाल तक भारत के राजनीतिक जीवन में सामन्त प्रथा का लगभग पूर्ण विकास हो चुका था। भारत के इतिहास में सामन्तवाद के बारे में सर्वप्रथम उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्रोफेसर रामशरण शर्मा को है, जिन्होंने चतुर्थ शताब्दी ई. से बारहवीं शताब्दी ई. के मध्य उत्तर भारत में सामन्त प्रथा का अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण विश्लेषण अपने ग्रंथ इन्डियन फ्यूडलिज्म : ३००-१२०० ई. (कलकत्ता १९६५) में किया है। प्रोफेसर शर्मा की विचार पद्धति समकालीन रूसी विद्वान् एल. बी. ए. अलायेफ से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। प्रोफेसर दीनेश चन्द्र १. मांकड़, पी. ए. अपराजितपृच्छा की भूमिका, बड़ौदा (१९५०) : XI २. अग्रवाल, वासुदेवशरण, "इन्ट्रोडक्शन टु अपराजितपृच्छा" जर्नल ऑव यू.पी. हिस्टारिकल सोसाइटी, वाल्यूम XXIV-xxv (1950-51) p. 290 परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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