Book Title: Anuyogdwar Sutra Author(s): Priya Jain Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 4
________________ अनुयोगद्वार सत्र 3851 दूरदर्शिता से काम लेते हुए उन्होंने इस अति दुर्गम श्रुतसाधना को सरल, सुगम्य बनाने हेतु अनुयोग की व्यवस्था प्रस्तुत की। अनुयोगद्वार में द्रव्यानुयोग की प्रधानता है। वीर निर्वाण सं. ५९२, वि.सं. १२२ के आसपास यह महत्वपूर्ण कार्य दशपुर में सम्पन्न हुआ। इसमें चार द्वार हैं, १८९९ श्लोकप्रमाण उपलब्ध मूल पाट है। १५२ गद्य सूत्र हैं और १४३ पद्य सूत्र हैं । श्रमण भगवान महावीर के समय की व्याख्यापद्धति का ही अनुकरण अनुयोगद्वार में किया गया है, यह स्पष्ट विदित होता है। इसके अनन्तर लिखे गये श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में भी इसी शैली का अनुकरण मिलता है। अनुयोगद्वार पर दो चूर्णियां, एक टीका, दो वृत्तियां, एक टब्बा, व्याख्याएँ, अनुवाद आदि मिलते हैं, इससे इसकी उपयोगिता सिद्ध होती है। अनुयोगद्वार की विषय वस्तु सर्वप्रथम सत्य के उद्बोधक के रूप में पंच ज्ञान से अनुयोगद्वार सूत्र का मंगलाचरण रचनाकार ने किया है। इसके पश्चात् श्रुतज्ञान के उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति का संकेत कर आवश्यक अनुयोग पर सर्वांगीण प्रकाश डाला है। आवश्यक सूत्र में साधना क्रम होने से आवश्यक सूत्र की व्याख्या सर्वप्रथम करके साधक, साधना और साध्य की त्रिपुटी के रहस्य को खोलने का सफल प्रयास किया है। आवश्यक श्रुतस्कन्धाध्ययन का स्वरूप चार निक्षेपों द्वारा स्पष्ट करते हुए यह सिद्ध किया है कि आवश्यक एक श्रुतस्कन्ध रूप और अनेक अध्ययनरूप है। देखें चार्ट आवश्यक नाम स्थापना नाम से वस्तु की स्थापना 40 भेद आगपत नो आगमा आगमतः मो आगमत लौकिक कुपावचम्कि - लोकोतरेक सार नयों तीन दृष्टियों से चिन्तन रो चिरान शशरीर तव्यतिरिक्त शरीर कन नाम स्थापना द्रव्य भाव नाम स्थापना द्रव्य भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9