Book Title: Anusandhan me Purvagrahamukti Avashyaka Kuch Prashna aur Samadhan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ देते हुए वे कहते हैं कि 'जो विज्ञप्ति मात्रको जानता है और लोकानुरोधसे बाह्य--परको भी स्वीकार करता है और फिर भी सबको शून्य कहता है तथा प्रतिपादन करता है कि न ज्ञाता है, न उसमें फल है और न कुछ अन्य जाना जाता है, ऐसा अश्लील, आकुल और अयुक्त प्रलाप करता है, उसे प्रमत्त (पागल), जड़बुद्धि और और विविध आकूलताओंसे घिरा हआ समझना चाहिए।' समन्तभद्रपर किये गये धर्मकीतिके प्रथम आक्षेपका यह जवाब 'जैसेको तैसा' नीतिका पूर्णतया परिचायक है। धर्मकीतिके दूसरे आक्षेपका भी उत्तर अकलंक उपहासपूर्वक देते हुए कहते हैं कि 'जो दही और ऊँटमें अभेदका प्रसंग देकर सभी पदार्थों को एक हो जानेकी आपत्ति प्रकट करता है और इस तरह स्याद्वादअनेकान्तवादका खण्डन करता है वह पूर्वपक्ष (अनेकान्तवाद--स्याद्वाद) को न समझकर दूषक (दूषण देनेवाला) होकर भी विदूषक-दूषक नहीं है, जोकर है-उपहासका पात्र है । सुगत भी कभी मृग था और मृग भी सुगत हुआ माना जाता है तथापि सुगतको वन्दनीय और मृगको भक्षणीय कहा गया है और इस तरह पर्यायभेदसे सुगत और मृगमें वन्दनीय एवं भक्षणीयकी भेदव्यवस्था तथा चित्तसन्तानकी अपेक्षासे उनमें अभेद व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार प्रतीति बलसे--पर्याय और द्रव्यको प्रतीतिसे सभी पदार्थोंमें भेद और अभेद दोनोंकी व्यवस्था है । अतः 'दही खा' कहे जानेपर कोई ऊँटको खानेके लिए क्यों दौड़ेगा, क्योंकि सत्द्रव्यकी अपेक्षासे उनमें अभेद होनेपर भी पर्यायकी दृष्टिसे उनमें उसी प्रकार भेद है, जिस प्रकार सुगत और मृगमें है । अतएव 'दही खा' कहनेपर कोई दही खानेके लिए ही दौड़ेगा, क्योंकि वह भक्षणीय है और ऊँट खानेके लिए वह नहीं दौड़ेगा, क्योंकि वह अभक्षणीय है । इस तरह विश्वकी सभी वस्तुओंको उभयात्मक-अनेकान्तात्मक मानने में कौन-सी आपत्ति या विपत्ति है अर्थात कोई आपत्ति या विपत्ति नहीं है । अकलंकके इन सन्तुलित एवं सबल जवाबोंसे बिलकुल असन्दिग्ध है कि समन्तभद्रकी आप्तमीमांसागत स्याद्वाद और अनेकान्तवादकी मान्यताओंका ही धर्मकीर्तिने खण्डन किया है और जिसका मुंहतोड़, किन्तु शालीन एवं करारा उत्तर अकलंकने दिया है। यदि समन्तभद्र धर्मकीतिके परवर्ती होते तो वे स्वयं उनका जवाब देते और उस स्थितिमें अकलंकको धर्मकीर्तिके उपर्युक्त आक्षेपोंका उत्तर देनेका मौका ही नहीं आता। चालीस-पचास वर्ष पूर्व स्व. पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, स्व. पं० सुखलाल संघवी आदि कुछ विद्वानोंने समन्तभद्रको धर्मकीर्तिका परवर्ती होनेकी सम्भावना की थी। किन्तु अब ऐसे प्रचुर प्रमाण सामने आ गये हैं, जिनके आधारपर धर्मकोति समन्तभद्रसे काफी उत्तरवर्ती (३००-४०० वर्ष पश्चात्) सिद्ध हो चुके हैं। इस विषय में डाक्टर ए०एन० उपाध्ये एवं डा० हीरालाल जैनका शाकटायन व्याकरण पर लिखा (ख) दध्युष्ट्रादेरभेदत्वप्रसंगावेकचोदनम् । पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः ।। सुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि सुगतः स्मृतः । तथापि सुगतो वंद्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते । तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः । चोदितो दधि खादेति विमष्टमभिधावति?-न्या०वि०३-३७३, ३७४ । १. न्यायकु०, द्वि० भा०, प्रस्ता०, पृ० २७, अक्लं० प्रन्थत्रथ०; प्राक्कथ०, पृ० ९, न्यायकु०, द्वि० भा०, पृ० १८-२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17