Book Title: Anusandhan me Purvagrahamukti Avashyaka Kuch Prashna aur Samadhan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
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शब्दलक्षण) के समर्थनके लिए उसे वहाँसे ग्रन्थकारने स्वयं लिया है या किसी उत्तरवर्तीने लिया है और जो बादको उक्त ग्रन्थका भी अंग बन गया। ध्यातव्य है कि श्रावकाचारमें आप्तके लक्षणके बाद आवश्यक तौरपर प्रतिपादनीय शाब्दलक्षणका प्रतिपादक अन्य कोई पद्य नहीं है, जबकि न्यायावतारमें शाब्दलक्षणका प्रतिपादक ८वां पद्य है। इस कारण भी उक्त ९वां पद्य (आप्तोपज्ञमनु०) श्रावकाचारका मूल पद्य है, जिसका वहाँ मूल रूपसे होना नितान्त आवश्यक और अनिवार्य है तथा न्यायावतारमें उसका ८वें पद्य के समक्ष, मूल रूपमें होना अनावश्यक, ब्यर्थ और पुनरुक्त है । अतः यही मानने योग्य एवं न्यायसंगत है कि न्यायावतारमें वह समन्तभद्रके श्रावकाचारसे लिया गया है न कि श्रावकाचारमें न्यायावतारसे उसे लिया है । अतः न्यायावतारसे श्रावकाचारमें उसे (९वें पद्यको) लेनेकी सम्भावना बिल्कुल निर्मूल एवं बेदम है।
- इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यमें देखनेपर न्यायावतारमें धर्मकीति' (ई० ६३५), कुमारिल (ई० ६५०)२ और पात्रस्वामी (ई०६ठी, ७वीं शती)3 इन ग्रंथ कारोंका अनुसरण पाया जाता है और ये तीनों ग्रन्थकार समन्तभद्रके उत्तरवर्ती हैं। तब समन्तभद्र को न्यायावतारकार सिद्धसेनका परवर्ती बतलाना केवल पक्षाग्रह है । उसमें युक्ति या प्रमाण (आधार) कुछ भी नहीं है । प्रश्न ३ और उसका समाधान
समीक्षकका तीसरा प्रश्न है कि 'न्यायशास्त्रके समग्र विकासको प्रक्रियामें ऐसा नहीं हआ है कि पहले जैन न्याय विकसित हआ और फिर बौद्ध एवं ब्राह्मणोंने उसका अनकरण किया हो।' हमें लगता है कि सर क्षकने हमारे लेखको आपाततः देखा है-उसे ध्यानसे पढ़ा ही नहीं है। उसे यदि ध्यानसे पढ़ा होता, तो वे ऐसा स्खलित और भड़काने वाला प्रश्न न उठाते। हम पुनः उनसे उसे पढ़ने का अनुरोध करेंगे। हमने 'जैन न्यायका विकास' लेखमें यह लिखा है कि 'जैन न्यायका उद्गम उक्त (बौद्ध और ब्राह्मण) न्यायोंसे नहीं हुआ, अपितु टिवाद श्रुतसे हुआ है । यह सम्भव है कि उक्त न्यायोंके साथ जैन न्याय भी फला-फूला हो । अर्थात् जैन न्यायके विकास में ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्यायका विकास प्रेरक हुआ हो और उनकी विविध क्रमिक शास्त्र-रचना जैन न्यायकी क्रमिक शास्त्र-रचनामें सहायक हई हो। समकालीनोंमें ऐसा आदान-प्रदान होना या प्रेरणा लेना स्वाभाविक है।' यहाँ हमने कहाँ लिखा कि पहले जैन न्याय विकसित हआ और फिर बौद्ध एवं ब्राह्मणोंने उसका अनुकरण किया। हमें खेद और आश्चर्य है कि समीक्षक एक शोध-संस्थानके
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१. (क) न प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां मेयस्यान्यस्य संभवः ।
तस्मात्प्रमेयद्वित्वेन प्रमाणद्वित्वमिष्यते ।।-प्र० वा० ३-६३ ।
प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधामयविनिश्चयात ।-न्यायाव०, श्लो०१। (ख) कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् । न्या०बि०, पृ० ११ ।
अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत् । -न्यायाव० श्लो० ५ । कुमारिलके प्रसिद्ध प्रमाणलक्षण (तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवजितम् । अदुष्टाकारणारब्धं प्रमाण लोकस-मतम् ॥) का 'बाधर्जितम्' विशेषण न्यायावतारके प्रमाणलक्षणमें भी 'वाधवर्जितम्' के रूपमें अनुसृत है। पात्रस्वामिका 'अन्यथानुपपन्नत्वं' आदि प्रसिद्धहेतुलक्षण न्यायावतारमें 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरि तम्' इस हेतु लक्षणप्रतिपादक कारिकाके द्वारा अपनाया गया है और 'ईरितम' पदका प्रयोग कर उसको
प्रसिद्धि भी प्रतिपादित की गयी है। ४. जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, प०७।
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