Book Title: Anusandhan me Purvagrahamukti Avashyaka Kuch Prashna aur Samadhan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
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तत्त्वार्थ सूत्र में नाग्न्यपरीषह
तत्त्वार्थसूत्रमें ‘अचेलपरीषह' के स्थानपर 'नाग्न्यपरीषह' रखनेपर विचार करते हुए हमने उक्त निबंध में लिखा था' कि 'अचेल' शब्द जब भ्रष्ट हो गया और उसके अर्थ में भ्रान्ति होने लगी तो आ० उमास्वातिने उसके स्थान में नग्नता - सर्वथा वस्त्ररहितता अर्थको स्पष्टतः ग्रहण करनेके लिए 'नाग्न्य' शब्दका प्रयोग किया।' इसका तर्कसंगत समाधान न करके सम्पादकजी लिखते हैं कि 'डा० साहबने श्वे० आगमोंको देखा ही नहीं है । श्वे० आगमों में नग्नके प्राकृत रूप नग्ग या णगिणके अनेक प्रयोग देखे जाते हैं ।' पर प्रश्न यह नहीं है कि आगमोंमें नग्नके प्राकृत रूप नग्ग या णगिणके प्रयोग मिलते हैं । प्रश्न यह है कि श्वे० आगमों में क्या 'अचेल परीषह' की स्थानापन्न 'नाग्न्य परीषह' उपलब्ध है ? इस प्रश्नका उत्तर न देकर केवल उनमें 'नाग्न्य' शब्दके प्राकृत रूपों (नग्ग, णगिण ) के प्रयोगोंकी बात करना और हमें श्वे० आगमोंसे अनभिज्ञ बताना न समाधान है और न शालीनता है । वस्तुतः उन्हे यह बताना चाहिए कि उनमें नाग्न्य परीषह है । किन्तु यह तथ्य है कि उनमें 'नाग्न्य परीषह' नहीं है । तत्त्वार्थ सूत्रकारने ही उसे 'अचलपरीषह' के स्थान में सर्वप्रथम अपने तत्त्वार्थ सूत्र में दिया है ।
तत्वार्थ सूत्र में विविक्तशय्यासन तप
उक्त निबन्धमें परम्पराभेदकी सूचक तत्त्वार्थ सूत्रगत एक बात कही है कि तत्त्वार्थ सूत्र में खे० श्रुतसम्मत संलीनता तपका ग्रहण नहीं किया, इसके विपरीत उसमें विविक्तशय्यासन तपका ग्रहण है, जो श्वे० श्रुतमें नहीं है । हरिभद्रसूरि के अनुसार संलीनता तपके चार भेदों में परिगणित विविक्तचर्या द्वारा भी तत्त्वार्थ सूत्रकारके विविक्तशय्याशनका ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि विविक्तचर्या दूसरी चीज़ है और विविक्तशय्यासन अलग चीज है ।
सम्पादकजीने हमारे इस कथनका भी अन्धाधुन्ध विविक्तचर्या में और विविक्तशय्यासनमें भी अन्तर मान करते हैं, इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दे पाये हैं, वस्तुतः उनके इस समीक्षणपर बहुत आश्चर्य है कि जो अपनेको श्वे० आगमोंका पारंगत मानता है वह विविक्तचर्या और विविक्तशय्यासन के अर्थ में कोई भेद नहीं बतलाता है तथा दोनोंको एक ही कहता है । जैन धर्मका साधारण ज्ञाता भी यह जानता कि चर्या गमन ( चलने) को कहा गया है और शय्यासन सोने एवं बैठने को कहते हैं । दोनोंमें दो भिन्न दिशाओंकी तरह भेद है । साधु जब ईर्यासमिति से चलता है - चर्या करता है तब वह सोता- बैठता नहीं है और जब सोता - बैठता है तब वह चलता नहीं है । वस्तुतः उनमें पूर्व और पश्चिम जैसा अन्तर है । पर सम्पादकजी अपने पक्षके समर्थनको धुनमें उस अन्तरको नहीं देख पा रहे हैं । यहाँ विशेष ध्यातव्य है कि तत्त्वार्थ सूत्रकारने २२ परीषहों में चर्या, निषद्या और शय्या इन तीनों को परीषहके रूपमें गिनाया है। किन्तु तपोंका विवेचन करते समय उन्होंने चर्याको तप नहीं कहा, केवल शय्या और आसन दोनों को एक बाह्य तप बतलाया है, जो उनकी सूक्ष्म सिद्धान्तज्ञताको प्रकट करता है । वास्तव में
समीक्षण करते हुए लिखा है कि 'डा० साहबने लिया है, किन्तु किस आधारपर वे इनमें अन्तर दोनोंमें कोई अर्थभेद है ही नहीं ।'
१. जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ० ८३ ।
२. वही, पृ० ८१ ।
३. व्याख्याप्र० श० २५, उ० ७, सू० ८ की हरिभद्र सूरिकृत वृत्ति । तथा वही पृ० ८१ ।
४. त० सू०, ९-१९ ।
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