Book Title: Anusandhan 2014 08 SrNo 64
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ हद सुधी पहोंचेलुं हतुं एम निःशङ्क कही शकाय. जैन आगमोमां अमुक आगमो छे, जे अत्यारे वास्तवमां लुप्त अप्राप्य छे. थोडां वर्षो के बे-चार सैका दरम्यान, मूळ परम्पराथी फंटायेल सम्प्रदायगत कोईक विद्वज्जने, ते नामनां ज, नवां अने ते पण प्राकृत भाषामां, प्रकरणो बनावी काढ्यां अने तेनी हाथपोथीओ विविध भण्डारोमां गोठवाई पण गई. ग्रन्थो जाली, पण नाम 'आगम' नां, एटले पारम्परिक श्रद्धा तेने जाली माने जनहि; तेवो विचार पण पाप गणाय. आ संजोगोमां तेने जाली तरीके नक्की करवां अने तेनी पोथीओ विविध भण्डारोमां पोतानी नजरे चडवा छतां अने पोते आगमोना संप्रज्ञ ज्ञाता तथा संशोधक होवा छतां, ते अप्रगट के अलभ्य मानवा तथा गमे तेवा ग्रन्थोने पोताना सम्पादनादिनो विषय न बनाववा, ते पण एक संशोधक लेखे केटला मोटा गजानी वात गणाय ! सम्मार्जन द्वारा यथार्थनो स्वीकार जेम संशोधन गणाय, तेम अयथार्थनो इन्कार पण संशोधन जगणाय, एटली पायानी समज ज आपणने संशोधन-क्षम बनावी शके. · 4 बाकी अयथार्थने यथार्थ समजी, हरखघेला थई, अद्यावधि कोईए न करी एम माननारा अने ते प्रमाणे काम करनारा पण - शी. होय तेवी शोध अमे करी आपणे त्यां नथी एवं नथी ! - Jain Education International श्रुतभक्ति आ अङ्कना प्रकाशनमां श्रीमाटुंगा जैन श्वे. मू. पू. सङ्घ - वासुपूज्यस्वामी जैन देरासर, किंग्स सर्कल, माटुंगा, मुंबई से पोताना ज्ञानखातामांथी सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग आपेल छे. श्रीसङ्घनी श्रुतभक्तिनी हार्दिक अनुमोदना. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 298