Book Title: Antrik Parshwanath Chand Author(s): Rasila Kadia Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 4
________________ August-2004 67 पापें पग भ[र]ता हीडे फिरता करता अति उनमाद घोटक जिम छूटे अतिआ कूटे लूटे निपट निषाद वनमा जे पडिआ चोरें नडिआ अडवडियां आधार इणि अवसर राखे कुण प्रभु पाखे भाखे वचन उदार ॥१६।। मदमत्त मयगल अतुल बल धर जास दरिसण भज्ज केसरिअ सींह अबीह अतीहें मेह सम वड गज्जओ विकराल काया(ल) कराल को सींहनाद विमुक्कओ सुखधाम प्रभु तुम नाम लेतां तेह सीह न ढुक्कले ॥१७॥ गललाट करतो मद्द झरतो कोप धरतों धांवो भर रोस रातो अधिक मातो अति कुजातो आवए घर हाट फोडे बंधु तोडे मान मोडे नृप तj तुम्ह नाम ते गज अजा थाई वसे आवे अति घणुं ॥१८॥ रणमाहिं सूरा भडे पूरा लोह चूरा चूरए गज कुंभ भेदे सीस छेदे वहेलो हित पूरओ दल देखि कंपे दीन जंपे करय प्रबल पुकारओ तुम्ह स्वामि नामें तिणे ठामें वरे जय जयकारओ ॥१९॥ भय आठ मोटा निपट खोटा जेम रोटा चूरिए अश्वसेन धोटा तुम प्रसादे मन मनोरथ पूरिए महिमाहि महिमा वधे दिन दिन चंद ने सूरिज समो जस जाप जपता ध्यान धरतां पार्श्व जिनवर ते नमो ॥२०॥ ___ छंद अडयल्ल छाया पडल जाल सवि कापे, आंखे अधिक तेज वलि आपे पन्नगपति प्रभुने परता, अविचल राज काज थिर थापे ॥२१॥ पदमावति परतो बहु पूरे, प्रभु प्रसाद संकट सवि चूरे अलबत्त अलंगी जाई दूरे, लखमी घर आवे भर पूरे ।।२२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10