Book Title: Antrik Parshwanath Chand
Author(s): Rasila Kadia
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 2
________________ August-2004 अने ते पाटणमां पं. भाग्यविजयगणि, सकल मुनिमण्डली तथा मुख्य मुनि श्री प्रेमविजयना वाचनार्थे रचाई होवानुं जणाव्युं छे. आम, समय, रचना स्थल, रचनाकार तथा रचनाना हेतुनी विगतो साथेनी आ कृति अन्तरिक्ष पार्श्वनाथनां पद्यमां तथा ऐतिहासिक दृष्टि महत्त्वनी छे. श्री अंतरीक ( अन्तरिक्ष ) पार्श्वनाथ छन्द दूहा सरसती मात माया करी, आपो अविचल वाणि पुरिसादाणी पास जिण, गाउं गुण मणि खांणि अदभुत कौतिक कलियुगें, दीसे एह अदभ धरथी अधर रहे सदा, अंतरीक थिर थंभ महिमा महि मंडल सबल, दीपे अनुपम आज अवर देह (व) सूता सवे, जागे तूं जिनराज एक जीभ करि किम कहुं, गुण अनंत भगवंत कोडि जीभ करि को कहे, तोहे न आवे अंत नवनिधि रिद्धिसिद्धि तुझ नामें जे प्रभु पद पंकज सिर नामें ॥१॥ ॥२॥ Jain Education International ||३|| तूं माता तूं हि ज पिता, त्राता तूंहि ज बंधू मन धरि मुझ उपरि करें, करुणा करुणासिंधु छंद अडयल्ल करि करुणा करुणा रस सागर, चरण कमल प्रणमें नित नागर निरमल गुण मणि गण वयरागर, सुरगुरु अधिक अछे मति आगर || ६ || ॥४॥ For Private & Personal Use Only कामकुंभ जिम कामितदायक, पद प्रणमें सुरवरनर नायक मथित सदुर्मय मनमथसायक, अष्ट कर्म रिपुदल घायक ||७|| 65 ॥५॥ बहुल वसे विवहारी व्रातं, वर सिरिपुर वसुधा विख्यातं जिहां राजे जिनवर जग तातं अंतरीक अनुपम अवदातं || ९ | 1 मनवंछित सुख संतति पामे बहुला सुरमहिला तस कामें ||८|| www.jainelibrary.org

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