Book Title: Antakruddasha ki Vishay Vastu Ek Punarvichar Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf View full book textPage 4
________________ अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु : एक पुनर्विचार के उल्लेख अन्य स्रोतों से भी उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनका उल्लेख बौद्ध परम्परा में मिल जाता है यथा-रामपुत्त, सोमिल, मातंग आदि । अन्तकृदशा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में विचार करते समय हम सुनिश्चितरूप से इतना कह सकते हैं कि इन सबमें स्थानांग सम्बन्धी विवरण अधिक प्रामाणिक तथा ऐतिहासिक सत्यता को लिये हुए है। समवायांग में एक ओर इसके दस अध्ययन बताये गये हैं तो दूसरी ओर समवायांगकार सात वर्गों की भी चर्चा करता है इससे ऐसा लगता है कि समवायांग के उपर्युक्त विवरण लिखे जाने के समय स्थानांग में उल्लेखित अन्तकृदशा की विषयवस्तु बदल चुकी थी किन्तु वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा का पूरी तरह निर्माण भी नहीं हो पाया था। केवल सात ही वर्ग बने थे। वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की रचना नन्दीसूत्र में तत्सम्बन्धी विवरण लिखे जाने के पूर्व निश्चित रूप से हो चुकी थी क्योंकि नन्दीसूत्रकार उसमें १० अध्ययन होने का कोई उल्लेख नहीं करता है। साथ ही वह आठ वर्गों की चर्चा करता है। वर्तमान अन्तकृद्दशा के भी आठ वर्ग ही हैं। उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु नन्दीसत्र की रचना के कुछ समय पूर्व तक अस्तित्व में आ गई थी। ऐसा लगता है कि वल्लभी वाचना के पूर्व ही प्राचीन अन्तकृद्दशा के अध्यायों की या तो उपेक्षा कर दी गयी या उन्हें यत्र-तत्र अन्य ग्रन्थों में जोड़ दिया गया था और इस प्रकार प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के स्थान पर नवीन विषयवस्तु रख दी गयी। यहां यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो सकता है कि ऐसा क्यों किया गया । क्या विस्मृति के आधार पर प्राचीन अन्तकृदशा की विषयवस्तु लुप्त हो गयी अथवा उसकी प्राचीन विषयवस्तु सप्रयोजन वहाँ से अलग कर दी गई। मेरी मान्यता यह है कि विषयवस्तु का यह परिवर्तन विस्मति के कारण नहीं, परन्तु सप्रयोजन ही हआ है। अन्तकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु में जिन दस व्यक्तित्वों के चरित्र का चित्रण किया गया था उनमें निश्चित रूप से मातंग, अम्बड, रामपृत्त, भयाली (भगाली) जमाली आदि ऐसे हैं जो चाहे किसी समय तक जैन परम्परा में सम्मान्यरूप से रहे हों किन्तु अब वे जैन परम्परा के विरोधी या बाहरी मान लिये गये थे। जिन प्रणीत, अंग सुत्तों में उनका उल्लेख रखना समुचित नहीं माना गया अतः जिस प्रकार प्रश्नव्याकरण से ऋषिभाषित को ऋषियों के उपदेशों से सप्रयोजन अलग किया गया उसी प्रकार अन्तकृद्दशा से इनके विवरण को भी सप्रयोजन अलग किया। यह भी सम्भव है कि जब जैन परम्परा में श्रीकृष्ण को वासुदेव के रूप में स्वीकार कर लिया गया तो उनके तथा उनके परिवार से सम्बन्धित कथानकों को कहीं स्थान देना आवश्यक था। अतः अन्तकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु को बदल कर उसके स्थान पर कृष्ण और उनके परिवार से सम्बन्धित पाँच वर्गों को जोड़ दिया गया । अन्तकृदशा की विषयवस्तु की चर्चा करते हुए सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने यह आता है कि दिगम्बर परम्परा में अन्तकृद्दशा की जो विषयवस्तु तत्वार्थवार्तिक में उल्लिखित है वह स्थानांग की सूची से बहुत कुछ मेल खाती है । यह कैसे सम्भव हुआ ? दिगम्बर परम्परा जहाँ अङ्गआगमों के लोप को बात करतो है तो फिर तत्त्वार्थवार्तिककार को उसकी प्राचीन विषयवस्तु के संबंध में जानकारी कैसे हो गई । मेरी ऐसी मान्यता है कि श्वेताम्बर आगम साहित्य के सम्बन्ध में दिगम्बर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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