Book Title: Antakruddasha ki Vishay Vastu Ek Punarvichar
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तकृद्दशा को विषय वस्तु एक पुनवचार : प्रो० सागरमल जैन अन्तकृद्दशा जैन अंग-आगमों का अष्टम अंगसूत्र है । स्थानांगसूत्र में इसे दश दशाओं में एक बताया गया है । अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु से सम्बन्धित निर्देश श्वेताम्बर आगम साहित्य में स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र में तथा दिगम्बर परम्परा में राजवार्तिक, धवला तथा जयधवला में उपलब्ध है । अन्तकृद्दशा का वर्तमान स्वरूप वर्तमान में जो अन्तकृद्दशा उपलब्ध है उसमें आठ वर्ग हैं। प्रथम वर्ग में गौतम, समुद्र, सागर, गम्भीर, स्तिमित, अचल, काम्पिल्य, अक्षोभ, प्रसेनजित और विष्णु ये दस अध्ययन उपलब्ध हैं । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में आठ अध्ययन हैं इनके नाम हैं- अक्षोभ, सागर, समुद्र, हिमवन्त, अचल, धरन, पूरन और अभिचन्द्र । तृतीय वर्ग में निम्न तेरह अध्ययन हैं - ( १ ) अनीयस कुमार, (२) अनन्तसेन कुमार, (३) अनिहत कुमार, (४) विद्वत् कुमार, (५) देवयश कुमार, (६) शत्रुसेन कुमार, (७) सारण कुमार, (८) गज कुमार, ( ९ ) सुमुख कुमार, (१०) दुर्मुख कुमार, (११) कूपक कुमार, (१२) दारुक कुमार, (१३) अनादृष्टि कुमार । इसी प्रकार चतुर्थ वर्ग में निम्न दस अध्ययन हैं(१) जालि कुमार, (२) मयालि कुमार, (३) उवयालि कुमार, (४) पुरुषसेन कुमार, (५) वारिषेण कुमार, (६) प्रद्युम्न कुमार, (७) शाम्ब कुमार ( ८ ) अनिरुद्ध कुमार, ( ९ ) सत्यनेमि कुमार और (१०) दृढनेमि कुमार | पंचम वर्ग में दस अध्ययन हैं जिनमें आठ कृष्ण की प्रधान पत्नियों और दो प्रद्युम्न की पत्नियों से सम्बन्धित हैं । प्रथम वर्ग से लेकर पाँचवें वर्ग तक के अधिकांश व्यक्ति कृष्ण के परिवार से संबन्धित हैं और अरिष्टनेमि के शासन में हुए हैं। छठें, सातवें और आठवें वर्ग का सम्बन्ध महावीर के शासन से है । छठें वर्ग के निम्न १६ अध्ययन बताये गये हैं- (१) मकाई, (२) किकम, (३) मुद्गरपाणि, (४) काश्यप, (५) क्षेमक (६) धृतिधर, (७) कैलाश, (८) हरिचन्दन, (९) वारत्त, (१०) सुदर्शन, (११) पुण्यभद्र, (१२) सुमनभद्र, (१३) सुप्रतिष्ठित, (१४) मेघकुमार, (१५) अतिमुक्त कुमार और (१६) अलक्क (अलक्ष्य) कुमार । सातवें वर्ग में १३ अध्ययनों के नाम निम्न हैं(१) नन्दा, (२) नन्दवती, (३) नन्दोत्तरा, (४) नन्दश्रेणिका, (५) मरुता, (६) सुमरुता, (७) महामरुता, (८) मरुद्देवा, (९) भद्रा, (१०) सुभद्रा, (११) सुजाता, (१२) सुमनायिका, (१३) भूतदत्ता । आठवें वर्ग में कालो, सुकाली, महाकाली, कृष्णा, सुदर्शना, वीरकृष्णा, रामकृष्णा, कर्मसेनकृष्णा और महासेनकृष्णा इन दस श्रेणिक की पत्नियों का उल्लेख है । उपर्युक्त सम्पूर्ण विवरण को देखने से केवल किकम और सुदर्शन ही ऐसे अध्याय हैं जो स्थानांग में उल्लिखित विवरण से नाम साम्य रखते हैं, शेष सारे नाम भिन्न हैं । अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु सम्बन्धी प्राचीन उल्लेख स्थानांग में हमें सर्वप्रथम अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु का उल्लेख प्राप्त होता है। इसमें अन्तकृद्दशा के निम्न दस अध्ययन बताये गये हैं । नमि, मातंग, सोमिल, रामगुप्त ( रामपुत्त), सुदर्शन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु : एक पुनर्विचार जमाली, भयाली, किंकम, पल्लतेतीय और फालअम्बपुत्र' । यदि हम वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा को देखते हैं तो उसमें उपर्युक्त दस अध्यायों में केवल दो नाम सुदर्शन और किंकम उपलब्ध हैं। समवायांग में अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु का विवरण देते हुए कहा गया है कि इसमें अन्तकृत जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इह लोक और परलोक की ऋद्धि विशेष, भोग और उनका परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतज्ञान का ध्यान, तप तथा क्षमा आदि बहुविध प्रतिमाओं, सत्रह प्रकार के संयम, ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य, समिति, गुप्ति, अप्रमाद, योग, स्वाध्याय और ध्यान सम्बन्धी विवरण हैं। आगे इसमें बताया गया है कि इसमें उत्तम, संयम को प्राप्त करने तथा परिग्रहों के जोतने पर चार कर्मों के क्षय होने से केवलज्ञान की प्राप्ति किस प्रकार से होती है इसका उल्लेख है साथ ही उन मुनियों की श्रमण पर्याय, प्रायोपगमन, अनशन, तम और रजप्रवाह से युक्त होकर मोक्षसख को प्राप्त करने सम्बन्धी उल्लेख हैं । समवायांग के अनुसार इसमें एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन और सात वर्ग बतलाये गये हैं। जबकि उपलब्ध अन्तकृद्दशा में आठ वर्ग हैं अतः समवायांग में वर्तमान अन्तकृद्दशा को अपेक्षा एक वर्ग कम बताया गया है। ऐसा लगता है कि समवायांगकार ने स्थानांग की मान्यता और उसके सामने उपलब्ध ग्रन्थ में एक समन्वय बैठाने का प्रयास किया है। ऐसा लगता है कि समवायांगकार के सामने स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा लुप्त हो चुकी थी और मात्र उसमें १० अध्ययन होने को स्मृति ही शेष थी तथा उसके स्थान पर वर्तमान उपलब्ध अन्तकृद्दशा के कम से कम सात वर्गों का निर्माण हो चुका था। नन्दीसूत्रकार अन्तकृद्दशा के सम्बन्ध में जो विवरण प्रस्तुत करता है वह बहुत कुछ तो समवायांग के समान ही है किन्तु उसमें स्पष्ट रूप से इसके आठ वर्ग का उल्लेख प्राप्त है। समवायांगकार जहाँ अन्तकृद्दशा की दस समुद्देशन कालों की चर्चा करता है वहाँ नन्दीसूत्रकार उसके आठ उद्देशन कालों की चर्चा करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की रचना समवायांग के काल तक बहुत कुछ हो चुकी थी और वह अन्तिम रूप से नन्दीसूत्र को रचना के पूर्व अपने अस्तित्व में आ चुका था। श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध तीनों विवरणों से हमें यह ज्ञात होता है कि स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा प्रथम संस्करण को विषयवस्तु किस प्रकार से उससे अलग कर दी गई और नन्दीसूत्र के रचना काल तक उसके स्थान पर नवीन संस्करण किस प्रकार अस्तित्व में आ गया। यदि हम दिगम्बर साहित्य को दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करें तो हमें सर्व प्रथम तत्त्वार्थवार्तिक में अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु से सम्बन्धित विवरण उपलब्ध होता है। उसमें निम्न दस अध्ययनों की सूचना प्राप्त होती है-नमि, मातंग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कम्बल और पातालम्बष्ठपुत्र । यदि हम स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा के दस अध्ययनों से इनकी तुलना करते हैं तो इसके यमलिक और वलिक ऐसे दो नाम हैं, जो स्थानांग उल्लेख से भिन्न है। वहाँ इनके स्थान पर जमाली, मयाली (भगाली) ऐसे दो अध्ययनों का उल्लेख है । पुनः चिल्वक १. स्थानांग, स्थान १०। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रो० सागरमल जैन का उल्लेख तत्त्वार्थं वार्तिककार ने नहीं किया है। उसके स्थान पर पाल और अम्बष्ठपुत्र ऐसे दो अलग अलग नाम मान लिये हैं । यदि हम इसकी प्रामाणिकता की चर्चा में उतरें तो स्थानांग का विवरण हमें सर्वाधिक प्रामाणिक लगता है । स्थानांग में अन्तकृद्दशा के जो दस अध्याय बताये गये हैं उनमें नमि नामक अध्याय वर्तमान उत्तराध्ययन सूत्र में उपलब्ध है । यद्यपि यह कहना कठिन है कि स्थानांग में उल्लिखित 'नमि' नामक अध्ययन और उत्तराध्ययन में उल्लिखित 'नमि' नामक अध्ययन की विषयवस्तु एक थो या भिन्न-भिन्न थी । नमि का उल्लेख सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध होता है । वहाँ पाराशर, रामपुत्त आदि प्राचीन ऋषियों के साथ उनके नाम का भी उल्लेख हुआ है । स्थानांग में उल्लिखित द्वितीय 'मातंग' नामक अध्ययन ऋषिभाषित के २६वें मातंग नामक अध्ययन के रूप में आज उपलब्ध है । यद्यपि विषयवस्तु की समरूपता के सम्बन्ध में यहाँ भी कुछ कह पाना कठिन है । सौमिल नामक तृतीय अध्ययन का नाम साम्य ऋषिभाषित के ४२ वें सोम नाम अध्याय के साथ देखा जा सकता है । रामपुत्त नामक चतुर्थ अध्ययन भी ऋषिभाषित के तेईसवें अध्ययन के रूप में उल्लिखित है । समवायांग के अनुसार द्विगृद्धिदशा के एक अध्ययन का नाम भी रामपुत्त था । यह भी संभव है कि अन्तकृद्दशा इसिमासियाइं और द्विगृद्धिदशा के रामपुत्त नामक अध्ययन की विषयवस्तु भिन्न हो चाहे व्यक्ति वही हो । सूत्रकृतांगकार ने रामपुत्त का उल्लेख अहंतु प्रवचन में एक सम्मानित ऋषि के रूप में किया है । रामपुत्त का उल्लेख पालित्रिपिटक साहित्य में हमें विस्तार से मिलता है । स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा का पाचवाँ अध्ययन सुदर्शन है । वर्तमान अन्तकृद्दशा में छठें वर्ग के दशवें अध्ययन का नाम सुदर्शन है । स्थानांग के अनुसार अन्तकृद्दशा का छठा अध्ययन जमाली है । अन्तकृदशा में सुदर्शन का विस्तृत उल्लेख अर्जुन मालाकार के अध्ययन में भी है । जमाली का उल्लेख हमें भगवती - सूत्र में भी उपलब्ध होता है । यद्यपि भगवतीसूत्र में जमालो को भगवान् महावीर के क्रियमानकृत के सिद्धान्त का विरोध करते हुए दर्शाया गया है। श्वेताम्बर परम्परा जमाली को भगवान् महावीर का जामातृ भी मानती है । परवर्ती साहित्य नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियों में भी जमाली का उल्लेख पाया जाता है और उन्हें एक निह्नव बताया गया है। स्थानांग की सूची के अनुसार अन्तकृद्दशा का सातवाँ अध्ययन भयाली ( भगाली ) है । 'भगाली मेतेज्ज' । ऋषिभाषित के १३ वें अध्ययन में उल्लिखित है । स्थानांग की सूची में अन्तकृद्दशा के आठवाँ अध्ययन का नाम किकम या किकस है । वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा में छठें वर्ग के द्वितीय अध्याय का नाम किकम है, यद्यपि यहाँ तत्सम्बन्धो विवरण का अभाव है । स्थानांग में अन्तकृतद्दशा के ९ वें अध्ययन का नाम चिल्वकया चिल्लवाक है । कुछ प्रतियों में इसके स्थान पर 'पल्लेतीय' ऐसा नाम भी मिलता है - इसके सम्बन्ध में भी हमें कोई विशेष जानकारी नहीं है । दिगम्बर आचार्य अकलंकदेव भी इस सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं है । स्थानांग में दसवें अध्ययन का नाम फालअम्बडपुत्त बताता है । जिसका संस्कृतरूप पालअम्बष्ठपुत्र हो सकता है । अम्बड संन्यासी का उल्लेख हमें भगवतीसूत्र में विस्तार से मिलता है अम्बड के नाम से एक अध्ययन ऋषिभाषित में भी है । यद्यपि विवाद का विषय यह हो सकता है कि जहां ऋषिभाषित और भगवती उसे अम्बड परिव्राजक कहते हैं वहां उसे अम्बडपुत्त कहा गया है । ऐतिहासिक दृष्टि से गवेषणा करने पर हमें ऐसा लगता है कि स्थानांग में अन्तकृद्दशा के १० अध्ययन बताये गये हैं वे यथार्थ व्यक्तियों से सम्बन्धित रहे होंगे क्योंकि उनमें से अधिकांश Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु : एक पुनर्विचार के उल्लेख अन्य स्रोतों से भी उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनका उल्लेख बौद्ध परम्परा में मिल जाता है यथा-रामपुत्त, सोमिल, मातंग आदि । अन्तकृदशा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में विचार करते समय हम सुनिश्चितरूप से इतना कह सकते हैं कि इन सबमें स्थानांग सम्बन्धी विवरण अधिक प्रामाणिक तथा ऐतिहासिक सत्यता को लिये हुए है। समवायांग में एक ओर इसके दस अध्ययन बताये गये हैं तो दूसरी ओर समवायांगकार सात वर्गों की भी चर्चा करता है इससे ऐसा लगता है कि समवायांग के उपर्युक्त विवरण लिखे जाने के समय स्थानांग में उल्लेखित अन्तकृदशा की विषयवस्तु बदल चुकी थी किन्तु वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा का पूरी तरह निर्माण भी नहीं हो पाया था। केवल सात ही वर्ग बने थे। वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की रचना नन्दीसूत्र में तत्सम्बन्धी विवरण लिखे जाने के पूर्व निश्चित रूप से हो चुकी थी क्योंकि नन्दीसूत्रकार उसमें १० अध्ययन होने का कोई उल्लेख नहीं करता है। साथ ही वह आठ वर्गों की चर्चा करता है। वर्तमान अन्तकृद्दशा के भी आठ वर्ग ही हैं। उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु नन्दीसत्र की रचना के कुछ समय पूर्व तक अस्तित्व में आ गई थी। ऐसा लगता है कि वल्लभी वाचना के पूर्व ही प्राचीन अन्तकृद्दशा के अध्यायों की या तो उपेक्षा कर दी गयी या उन्हें यत्र-तत्र अन्य ग्रन्थों में जोड़ दिया गया था और इस प्रकार प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के स्थान पर नवीन विषयवस्तु रख दी गयी। यहां यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो सकता है कि ऐसा क्यों किया गया । क्या विस्मृति के आधार पर प्राचीन अन्तकृदशा की विषयवस्तु लुप्त हो गयी अथवा उसकी प्राचीन विषयवस्तु सप्रयोजन वहाँ से अलग कर दी गई। मेरी मान्यता यह है कि विषयवस्तु का यह परिवर्तन विस्मति के कारण नहीं, परन्तु सप्रयोजन ही हआ है। अन्तकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु में जिन दस व्यक्तित्वों के चरित्र का चित्रण किया गया था उनमें निश्चित रूप से मातंग, अम्बड, रामपृत्त, भयाली (भगाली) जमाली आदि ऐसे हैं जो चाहे किसी समय तक जैन परम्परा में सम्मान्यरूप से रहे हों किन्तु अब वे जैन परम्परा के विरोधी या बाहरी मान लिये गये थे। जिन प्रणीत, अंग सुत्तों में उनका उल्लेख रखना समुचित नहीं माना गया अतः जिस प्रकार प्रश्नव्याकरण से ऋषिभाषित को ऋषियों के उपदेशों से सप्रयोजन अलग किया गया उसी प्रकार अन्तकृद्दशा से इनके विवरण को भी सप्रयोजन अलग किया। यह भी सम्भव है कि जब जैन परम्परा में श्रीकृष्ण को वासुदेव के रूप में स्वीकार कर लिया गया तो उनके तथा उनके परिवार से सम्बन्धित कथानकों को कहीं स्थान देना आवश्यक था। अतः अन्तकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु को बदल कर उसके स्थान पर कृष्ण और उनके परिवार से सम्बन्धित पाँच वर्गों को जोड़ दिया गया । अन्तकृदशा की विषयवस्तु की चर्चा करते हुए सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने यह आता है कि दिगम्बर परम्परा में अन्तकृद्दशा की जो विषयवस्तु तत्वार्थवार्तिक में उल्लिखित है वह स्थानांग की सूची से बहुत कुछ मेल खाती है । यह कैसे सम्भव हुआ ? दिगम्बर परम्परा जहाँ अङ्गआगमों के लोप को बात करतो है तो फिर तत्त्वार्थवार्तिककार को उसकी प्राचीन विषयवस्तु के संबंध में जानकारी कैसे हो गई । मेरी ऐसी मान्यता है कि श्वेताम्बर आगम साहित्य के सम्बन्ध में दिगम्बर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रो० सागरमल जैन परम्परा में जो कुछ भी जानकारी प्राप्त हुई है वह यापनीय परम्परा के माध्यम से प्राप्त हुई है और इतना निश्चित है कि यापनीय और श्वेताम्बरों का भेद होने तक स्थानांग में उल्लिखित सामग्री अन्तकृद्दशा में प्रचलित रही हो और तत्सम्बन्धी जानकारी अनुश्रुति के माध्यम से तत्त्वार्थवार्तिककार तक पहुँची हो । तत्वार्थवार्तिककार को भी कुछ नामों के सम्बन्ध में अवश्य ही भ्रान्ति है, अगर उसके सामने मूलग्रन्थ होता तो ऐसी भ्रान्ति की सम्भावना नहीं रहती । जमाली का तो संस्कृत रूप यमलोक हो सकता है किन्तु भगाली या भयाली का संस्कृत रूप वलीक किसी प्रकार नहीं बनता । इसी प्रकार किंकम का किष्क्रम्बल रूप किस प्रकार बना यह भी विचारणीय है । चिल्वक या पल्लतेत्तीय के नाम का अपलाप करके पालअम्बष्ठपुत्त को भी अलग-अलग कर देने से ऐसा लगता है कि वार्तिककार के समक्ष मूल ग्रन्थ नहीं है केवल अनुश्रुति के रूप में ही वह उनकी चर्चा कर रहा है । जहाँ श्वेताम्बर चूर्णिकार और टीकाकार विषय वस्तु सम्बन्धी दोनों ही प्रकार की विषयवस्तु से अवगत हैं वहां दिगम्बर ( आचार्यों को मात्र प्राचीन संस्करण ) उपलब्ध अन्तकृदशा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में जो कि छठीं शताब्दी में अस्तित्व में आ चुकी थी कोई जानकारी नहीं थी । अतः उनका आधार केवल अनुश्रुति था ग्रन्थ नहीं । जब कि श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों का आधार एक ओर ग्रन्थ था तो दूसरी ओर स्थानांग का विवरण | धवला और जयधवला में अन्तकृद्दशा सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध है वह निश्चित रूप से तत्त्वार्थवार्तिक पर आधारित है । स्वयं धवलाकार वीरसेन 'उक्तं च तत्त्वार्थ भाष्ये' कहकर उसका उल्लेख करता है । इससे स्पष्ट है कि धवलाकार के समक्ष भी प्राचीन विषयवस्तु का कोई ग्रन्थ उपस्थित नहीं था । अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु ईसा की चौथी पांचवीं शताब्दी के पूर्व ही परिवर्तित हो चुकी थी और छठीं शताब्दी के अन्त तक वर्तमान अन्तदशा अस्तित्व में आ चुकी थी । पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, आई० टी० आई० रोड, वाराणसी - २२१००५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु : एक पुनर्विचार अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु सम्बन्धी सन्दर्भ (१) स्थानाङ्ग (सं० मधुकरमुनि) दशम स्थान, सूत्र ११० एवं ११३ दस दसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कम्मविवाग-दसाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसायो, अणुत्तरोववाइयदसाओ आयारदसाओ, पण्हावागरणदसाओ, बंधदसाओ, दोगिद्धिदसाओ, दीहदसाओ, संखेवियदसाओ। एवं अंतगडदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा णमि मातंगे सोमिले, रामगुत्ते सुदंसणे चेव । जमाली य भगाली य, किंकसे चिल्लएतिय । फाले अंबडपुत्ते य एमेते दस आहिता ॥ (२) समवायाङ्ग (सं० मधुकर मुनि) प्रकीर्णक समवाय सूत्र, ५३९-५४० से किं तं अंतगडदसाओ ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाइ रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइ धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इढिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई पडिमाओ बहुविहाओ, खमा अज्जवं मद्दवं च, सोअंच सच्चसहियं, सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च बंभं, आकिंचणया तवो चियाओ समिइगुत्तीओ चेव, तह अपप्मायजोगो. सज्झायज्झाणाण य उत्तमाण दोण्हंपि लक्खणाई।। पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउन्विहकम्मखयम्मि जह केवलस्स लंभो, परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणिहिं, पायोवगओ य जो जहिं, जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरो तमरयोघविप्पमुक्को, मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता। एए अण्णे य एवमाइअत्था वित्यारेणं परूवेई । ___ अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ।, से णं अंगठ्ठयाए अट्ठमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा सत्त वग्गा दस उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला संखेज्जाइपयसयसहस्साइपयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णि बद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ताभावा आधविज्जति पण्णा विज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । से एवं आया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरण करण-परूवणया आघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं अंतगडदसाओ। (३) नन्दीसूत्र (सं० मधुकर मुनि) सूत्र ५३, पृ० १८३, से किं तं अंतगडदसाओ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं नगराई, उज्जाणाइ, चेइआइ वणसंडाई समोसरणाइ, रायाणो, अम्मा-पियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइअ-परलोइआइड्ढि विसेसा, भोग wwwjainelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 प्रो० सागरमल जैन परिच्चाया पव्वज्जाओ, परिपागा, सुअपरिग्गहा, तवोवहाणाई सलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाई, पाओवगमणाइं अंतकिरिआओ आघविज्जन्ति / अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ। __ से णं अंगठ्ठयाए अट्ठमे अंगे, एगे सुअखंधे अट्ठ वग्गा, अठ्ठ उद्देसणकाला, अट्ठ समुद्देसण काला संखेज्जा पयसहस्सा पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरो, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइआ जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति, पन्नविज्जंति, पंरूविज्जति, दंसिज्जति निदंसिज्जति, उवदंसिज्जति / से एवं आया, एवं नाया, एव विनाया, एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ। से तं अंतगडदसाओ। (4) तत्वार्थवातिक--पृष्ठ 51 संसारस्यान्तः कृतो यैस्तेऽन्येकृतः नमिमतंगसोमिलरामपुत्रसुदर्शनयमवाल्मीकवलोक. निष्कंबलपालम्बष्टपुत्रा इत्येते दश वर्धमानतीर्थङ्करतीर्थे / / (ष) षटखण्डागम धवला 1 / 1 / 2, खण्ड एक, भाग एक, पुस्तक एक--पृष्ठ 103-4 अंतयडदसा णाम अंगं तेवीस लक्ख-अट्ठावीस-सहस्स-पदेहि 2328000 एक्के वकम्हि य तित्थे दारुणे बहुविहोवसग्गे सहिऊण पाडिहेरं लघृण णिव्वागं गदे दस दस वण्णेदि / उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये--संसारस्यान्तः कृतो यैस्तेऽन्तकृतः नमि-मतङ्ग सोमिल-रामपुत्र-सुदर्शनयमलीक-वलीककिष्कविल पालम्बष्टपुत्रा इति एते दश वर्द्धमानतीर्थङ्करतीर्थे / एवमृषभादीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये, एवं दश दशानगाराः दारुणानुपसर्गानिजित्य कृत्स्नकर्मक्षयादन्तकृतो दशास्यां वर्ण्यन्त इति अन्तकृदशा /