Book Title: Angvijja me Jain Mantro ka Prachintam Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ 'अंगविज्जा' में जैन मंत्रों का प्राचीनतम स्वरूप : ७३ गुणेहिं पडिरूवसमुप्पाएहिं वा उवलद्धीवीहिसुभा-ऽसुभाणं संपत्ति-विपत्तिसमायोगेणं उक्करिसा-ऽवकरिसा उवलद्धव्वा भवंति।। ।। इति ख० पु० संगहणीपडलं सम्मत्तं ।।१।। छ।। इसी प्रकार इस ग्रन्थ के साठवें अध्याय में भी मन्त्रसाधना सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं, जिसमें यह बताया गया है कि निर्दिष्ट मन्त्रसाधना से विद्या स्वयं उपस्थित हो करके कहती है कि मैं कहां प्रवेश करूँ? निर्देशानुसार प्रविष्ट होकर वह प्रश्नों का उत्तर देती है। ग्रन्थकार ने यहाँ सबसे अधिक मनोरंजक बात यह लिखी है कि विद्या सिद्ध हो जाने पर जिन प्रश्नों का उत्तर देती है उनमें १६ में से एक प्रश्न के उत्तर में भ्रान्ति हो सकती है, फिर भी ऐसा सिद्ध साधक अपनी इस शक्ति के कारण अजिन होकर भी जिन के सदृश आभासित होता है। इस सन्दर्भ में ग्रन्थ का निम्न अंश विशेष रूप से द्रष्टव्य है “सिद्धं खीरिणि! खीरिणि! उदुंबरि! स्वाहा, सव्वकामदये! स्वाहा, सव्वणाणसिद्धिकरि! स्वाहा १! तिणि छठ्ठाणि, मासं दद्धोदोणं उदंबरस्स हेठ्ठा दिवा विज्जामधीये, अपच्छिमे छठे ततो विज्जाओ य पवत्तंते रूवेण य दिस्सते, भणति-कतो ते पविसामि?, तं जहा ते पविसामि तं ते अणंगं काहामीति। पविसित्ता य भणति-सोलस वाकरणाणि वा णाहिसि एक्कं चुक्किहिसि। एवं भणित्तु पविसति सिद्धा भवति। णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो सव्वसाधूणं, णमो भगवती महापुरिसदिण्णाय अंगविज्जाय, आकरणी वाकरणी लोकवेयाकरणी धरणितले सुप्पतिठिते आदिच्च-चंद- णक्खत्त-गहगण-तारारूवाणं सिद्धकतेणं अत्थकतेणं धम्मकतेणं सव्वलोकसुबुहेणं जे अढे सव्वे भूते भविस्से से अढे इध दिस्सतु पसिणम्मि स्वाहा २। एसा आभोयणीविज्जा आधारणी छठुग्गहणी, आधरपविसंतेण अप्पा अभिमंतइतव्वो, आकरणि वाकरणि पविसित्तु मंते जवति पुस्सयोगे, चउत्थमत्तेणमेव दिस्सति। णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो भगवतो यसवतो महापुरिसस्स, णमो भगवतीय सहस्सपरिवाराय अंगविज्जाए, इमं विज्जं पयोयेस्सामि, सा मे विज्जा पसिज्झतु, खीर्रिण ! उंदुबरि ! स्वाहा, सर्वकामदये ! स्वाहा, सर्वज्ञानसिद्धिरिति स्वाहा ३ । उपचारो-मासं दुद्धोदणेण उदुंबरस्स हेठ्ठा दिवसं विज्जामधीये, अपच्छिमे छठे कातव्वे ततो विज्जा ओवयति त्ति रूवेण दिस्सति, भणति य-कतो ते पविसामि?, जतो य ते पविस्सिस्सं तीय अणंणं काहामि। पविसित्ता य भणतीसोलस वाकरणाणि वाकरेहिसि, ततो पुण एक्कं चुक्किहिसि, वाकरणाणि पण्णरस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7