Book Title: Angvijja me Jain Mantro ka Prachintam Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

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Page 1
________________ 'अंगविज्जा' में जैन मंत्रों का प्राचीनतम स्वरूप 'अंगविज्जा' पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत निमित्तशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थ है। इसका वास्तविक रचनाकाल क्या है? यह निर्णय तो अभी नहीं हो सका, किन्तु इसकी भाषा, विषयवस्तु आदि की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा लगता है कि यह ईस्वी सन् के पूर्व का एक प्राचीन ग्रन्थ है। भाषा की दृष्टि से इसमें प्राचीन अर्धमागधी एवं शौरसेनी के अनेक लक्षण उपलब्ध होते हैं और इस दृष्टि से इसकी भाषा उपलब्ध श्वेताम्बर मान्य आगामों की अपेक्षा भी प्राचीन लगती है। नमस्कार मन्त्र का प्राचीनतम रूप जो खारवेल (ई.पू.२री शती) के अभिलेख में पाया जाता है, वह इसमें भी मिलता है। मेरी दृष्टि में यह ईसा पूर्व दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती के मध्य की रचना है। इसका वास्तविक काल तो इसके सम्पूर्ण अध्ययन के बाद ही निर्धारित किया जा सकता है। सामान्यतया यह सांस्कृतिक सामग्री से भरपूर फलादेश या निमित्त शास्त्र का ग्रन्थ है, किन्तु इसमें अनेक प्रसंगों में जैन परम्परा में मान्य मन्त्रों का उल्लेख होने से इसे जैन तन्त्रशास्त्र का भी प्रथम ग्रन्थ कहा जा सकता है। इसमें कुल साठ अध्याय हैं। जैन साहित्य के बृहद् इतिहास भाग- ५ (पृ. २१४) में पं० अम्बालाल शास्त्री ने इसका संक्षिप्त विवरण दिया है, जो इस प्रकार है - __ “आरम्भ में अंगविद्या की प्रशंसा की गई है और बताया गया है कि उसके द्वारा सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, जीवन-मरण आदि बातों का ज्ञान होना सम्भव है। ३० पटलों में विभक्त आठवें अध्याय में आसनों के अनेक भेद बताये गये हैं। नौवें अध्याय में १८६८ गाथाएँ हैं, जिनमें २७० विषयों का निरूपण है। इन विषयों में अनेक प्रकार की शय्या, आसन, यान, कुडय, स्तम्भ, वृक्ष, वस्त्र, आभूषण, बर्तन, सिक्के आदि का वर्णन है। ग्यारहवें अध्याय में स्थापत्य सम्बन्धी विषयों का महत्त्वपूर्ण वर्णन करते हुए तत्सम्बन्धी शब्दों की विस्तृत सूची दी गई हैं। उन्नीसवें अध्याय में राजोपजीवी शिल्पी और उनके उपकरणों के सम्बन्ध में उल्लेख है। इक्कीसवां अध्याय विजयद्वार नामक है, जिसमें जय-पराजय सम्बन्धी कथन हैं। बाईसवें अध्याय में उत्तम फलों की सूची दी गई है। पच्चीसवें अध्याय में गोत्रों का विस्तृत उल्लेख है। छब्बीसवें अध्याय में नामों का वर्णन है। सत्ताईसवें अध्याय में राजा, मन्त्री, नायक, भाण्डागारिक, आसनस्थ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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