Book Title: Anekant aur Syadwad Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 7
________________ जायेगा, वहाँ अन्त का अर्थ धर्म होगा। तब यह अर्थ होगा - परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दो धर्मों का एक ही वस्तु में होना अनेकान्त है। स्यात्कार का प्रयोग धर्मों में होता है, गुणों में नहीं। सर्वत्र ही स्यात्कार का प्रयोग धर्मों के साथ किया है, कहीं भी अनुजीवी गुणों के साथ नहीं। यद्यपि 'धर्म' शब्द का सामान्य अर्थ गुण होता है, शक्ति आदि नामों से भी उसे अभिहित किया जाता है; तथापि गुण और धर्म में कुछ अन्तर है। प्रत्येक वस्तु में अनन्त शक्तियाँ हैं, जिन्हें गुण या धर्म कहते हैं। उनमें से जो शक्तियाँ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं या सापेक्ष होती हैं, उन्हें धर्म कहते हैं। जैसे - नित्यताअनित्यता, एकता-अनेकता, सत्-असत्, भिन्नता-अभिन्नता आदि। जो शक्तियाँ विरोधाभास से रहित हैं, निरपेक्ष हैं; उन्हें गुण कहते हैं। जैसे - आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख आदि; पुद्गल के रूप, रस, गंध आदि। ___ जिन गुणों में परस्पर कोई विरोध नहीं है, एक वस्तु में उनकी एक साथ सत्ता तो सभी वादी-प्रतिवादी सहज स्वीकार कर लेते हैं; किन्तु जिनमें विरोधसा प्रतिभासित होता है, उन्हें स्याद्वादी ही स्वीकार करते हैं। इतर जन उनमें से किसी एक पक्ष को ग्रहण कर पक्षपाती हो जाते हैं। अत: अनेकान्त की परिभाषा में परस्पर विरुद्ध शक्तियों के प्रकाशन पर विशेष बल दिया गया है। __ प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक युगल (जोड़े) पाये जाते हैं; अत: वस्तु केवल अनेक धर्मों (गुणों) का ही पिण्ड नहीं है; किन्तु परस्पर विरोधी दिखने वाले अनेक धर्म-युगलों का भी पिण्ड है। उन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों को स्याद्वाद अपनी सापेक्ष शैली से प्रतिपादन करता है। - प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं। उन सब का कथन एक साथ तो सम्भव नहीं है; क्योंकि शब्दों की शक्ति सीमित है, वे एक समय में एक ही धर्म को कह सकते हैं। अतः अनन्त धर्मों में एक विवक्षित धर्म मुख्य होता है, जिसका कि प्रतिपादन किया जाता है, बाकी अन्य सभी धर्म गौण होते हैं ; क्योंकि उनके सम्बन्ध में अभी कुछ नहीं कहा जा रहा है। १. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग ४, पृष्ठ ५०१Page Navigation
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