Book Title: Anekant Samanvay ka Adhar
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि महावीर जैसा गैरदावेदार आदमी ही नहीं हुआ इस जगत् में। उनका एकदम असाम्प्रदायिक चित्त था । इसी कारण वे सत्य को विभिन्न कोनों से देख सके हैं। महावीर के पूर्व उपनिषद् कहते थे कि ब्रह्म की व्याख्या नहीं हो सकती। बड़ा अद्भुत है उसका स्वरूप । महावीर ने कहा ब्रह्म तो बहुत दूर की चीज है, तुम एक घड़े की ही व्याख्या नहीं कर सकते। उसका अस्तित्व भी अनिर्वचनीय है । इसे महावीर ने विस्तार से समझाया । सप्तभंगी महावीर के पूर्व सत्य के सम्बन्ध में तीन दृष्टिकोण थे(१) है, (२) नहीं है और (३) दोनों - नहीं भी एवं है । घट के सम्बन्ध में यह कहा जाता था कि वह घट है, कोई कपड़ा आदि नहीं। घट नहीं है, क्योंकि वह तो मिट्टी है। तथा घड़े के अर्थ में वह घड़ा है तथा मिट्टी के अर्थ में घड़ा नहीं है । इस प्रकार वस्तु को इस त्रिभंगी से देखा जाता था । महावीर ने कहा कि सिर्फ तीन से काम नहीं चलेगा । सत्य और भी जटिल है । अतः उन्होंने इसमें चार सम्भावनाएं और जोड़ दीं। उन्होंने कहा कि घट स्यात् अनिर्वचनीय है, क्योंकि न तो वह मिट्टी कहा जा सकता है और न घड़ा ही । इसी अनिर्वचनीय को महावीर ने प्रथम तीन के साथ और जोड़ दिया। इस प्रकार सप्तभंगी द्वारा वे पदार्थ के स्वरूप की व्याख्या करना चाहते थे । इस सप्तभंगी नय को महावीर ने अनेक दृष्टान्तों द्वारा समझाया है। उनमें छह अन्धों और हाथी का दृष्टान्त प्रसिद्ध है। आप इसे अन्य उदाहरण से समझें। एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र, पति, मामा, भानजा, काका, भतीजा इत्यादि सभी हो सकता है। एक साथ होता है । किन्तु उसे ऐसा सब कुछ एक साथ नहीं कहा जा सकता । उसकी एक विशेषता को मुख्य और शेष को गौण रखकर २ Jain Education International ही कहना होगा । यहाँ गौण रखने का अभिप्राय उसकी विशेषताओं का अस्वीकार नहीं है और न संशय या अनिश्चय ही । बल्कि व्यावहारिकता का निर्वाह है। अतः किसी वस्तु का युगपद् कथन न जरूरी है और न सम्भव । फिर भी उसकी पूर्णता अवश्य बनी रहती है । वस्तुओं के इस अनेकत्व को मानना ही अनेकान्तवाद है । स्याद्वाद कोई संशयवाद नहीं पदार्थों की अनेकता स्वयं द्रव्य के स्वरूप में छिपी है, प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से युक्त होता है । प्रत्येक क्षण उसमें नयी पर्याय की उत्पति, पुरानी पर्याय का नाश एवं द्रव्यपने की स्थिरता बनी रहती है । इसी बात को कहने के लिए महावीर ने अनेकान्त की बात कही । वस्तु का अनेकधर्मा होना अनेकान्तवाद है तथा उसे अभिव्यक्त करने की शैली का नाम स्याद्वाद कोई संशयवाद नहीं है। अपितु स्यात् शब्द का प्रयोग वस्तु के एक और गुण की सम्भावना का द्योतक है । स्याद्वाद महावीर के जीवन में व्याप्त था । उनके बचपन में ही स्याद्वादी चिंतन प्रारम्भ हो गया था। कहा जाता है कि एक दिन वर्द्धमान के कुछ बालक साथी उन्हें खोजते हुए माँ त्रिशला के पास पहुँचे । त्रिशला ने कह दिया - वर्द्धमान भवन में ऊपर है। बच्चे सबसे ऊपरी खण्ड पर पहुँच गये। वहाँ पिता सिद्धार्थ थे, वर्द्धमान नहीं। जब बच्चों ने पिता सिद्धार्थ से पूछा तो उन्होंने कह दिया - वर्द्धमान नीचे है। बच्चों को बीच की एक मंजिल में वर्द्धमान मिल गये। बच्चों ने महावीर से शिकायत की कि आज आपकी माँ एवं पिता दोनों ने झूठ बोला । वर्द्धमान ने अपने साथियों से कहा- तुम्हें भ्रम हुआ है। माँ एवं पिताजी दोनों ने सत्य कहा था । तुम्हारे समझने का फर्क है । माँ नीचे की मंजिल पर खड़ी थी । अतः उनकी अपेक्षा मैं ऊपर था और पिताजी सबसे अनेकान्तवाद : समन्वय का आधार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6