Book Title: Anekant Samanvay ka Adhar
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 1
________________ जैन संस्कृति का आलोक अनेकान्तवाद : समन्वय का आधार प्रोफेसर डॉ. प्रेम सुमन जैन, उदयपुर अनेकांत वस्तुतः समन्वय का आधार है। एक ही सत्य-तथ्य को अनेक पहलूओं से उजागर करना ही अनेकांत है । प्रमाण एवं नय के आलोक में ही अनेकांत के दिग्दर्शन हो सकते है । अनेकांत समस्याओं के सुलझाने हेतु एक न्यायाधीश की भाँति कार्य करता है। प्रो. डॉ. श्री प्रेमसुमन जैन अनेकांत दर्शन को वर्तमान युग के सन्दर्भ में व्याख्यायित कर रहे हैं। सम्पादक सत्य सापेक्ष है भगवान् महावीर ने ज्ञान के भेद-प्रभेदों का जो प्रतिपादन किया, उसके द्वारा आत्मा के क्रमिक विकास का पता चलता है तथा इस वस्तुस्थिति का भी भान होता है कि हम ज्ञान की कितनी छोटी-सी किरण को पकड़े बैठे हैं, जबकि सत्य की जानकारी सूर्य-सदृश प्रकाश वाले ज्ञान से हो पाती है। महावीर ने इस क्षेत्र में एक अद्भुत कार्य और किया। उनके युग में चिन्तन की धारा अनेक टुकड़ों में बंट गयी थी। सभी विचारक अपनी दृष्टि से सत्य को पूर्णरूपेण जान लेने का दावा कर रहे थे । प्रत्येक के कथन में दृढ़ता थी कि सत्य मेरे कथन में ही है, अन्यत्र नहीं । इसका परिणाम यह हुआ कि अज्ञानी एवं अन्धविश्वासी लोगों का कुछ निश्चित समुदाय प्रत्येक के साथ जुड़ गया था । अतः प्रत्येक सम्प्रदाय का सत्य अलग-अलग हो गया था । महावीर यह सब देख-सुनकर आश्चर्य में थे कि सत्य के इतने दावेदार कैसे हो सकते हैं ? प्रत्येक अपने को ही सत्य का बोधक समझता है, दूसरे को नहीं । ऐसी स्थिति में महावीर ने अपनी साधना एवं अनुभव के आधार पर कहा कि सत्य उतना ही नहीं है, जिसे मैं देख या जान रहा हूँ। यह वस्तु के एक धर्म का ज्ञान है, एक गुण का । पदार्थ में अनन्त गुण एवं अनन्त पर्यायें हैं । किन्तु व्यवहार में उसका कोई एक स्वरूप ही हमारे सामने आता है । उसे अनेकान्तवाद : समन्वय का आधार Jain Education International - ही हम जान पाते हैं । अतः प्रत्येक वस्तु का ज्ञान सापेक्ष रूप से हो सकता है । पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करने के दो साधन हैं- प्रमाण एवं नय। जब हम केवलज्ञान जैसे प्रामाणिक ज्ञान के अधिकारी होते हैं तब वस्तु को पूर्णरूपेण जानने की क्षमता रखते हैं । किन्तु जब हमारा ज्ञान इससे कम होता है तो हम वस्तु के एक अंश को जानते हैं, जिसे न कहते हैं। लेकिन जब हम वस्तु को जानकर उसका स्वरूप कहने लगते हैं तो एक समय में उसके एक अंश को ही कह पायेंगे। अतः सत्य को सापेक्ष मानना चाहिए। अनिर्वचनीय अस्तित्व उस युग में महावीर की इस बात से अधिकांश लोग सहमत नहीं हो पाये। लोगों को आश्चर्य होता यह देखकर कि यह कैसा तीर्थंकर है, जो एक ही वस्तु को कहता है - 'है' और कहता है - 'नहीं है।' अपनी बात को भी सही कहता है और जो दूसरों का कथन है उसे भी गलत नहीं मानता। इस आश्चर्य के कारण उस युग में भी महावीर के अनुयायी उतने नहीं बने, जितने दूसरे विचारकों के थे। क्योंकि व्यक्ति तभी अनुयायी बनता है, जब उसका गुरु कोई बंधी - बंधाई बात कहता हो । जो यह सुरक्षा देता हो कि मेरा उपदेश तुम्हें निश्चित रूप से मोक्ष दिला देगा। महावीर ने यह कभी नहीं कहा। इस कारण उनके ज्ञान और उपदेशों से वही श्रावक बन सके जो स्वयं के पुरुषार्थ में विश्वास रखते थे एवं बुद्धिमान थे । For Private & Personal Use Only १ www.jainelibrary.org

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