Book Title: Alochanagarbhit Shri Nabheya Jina Vignaptirupa Stavana Author(s): Pradyumnasuri Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 9
________________ પ્રદ્યુમ્નવિજય ગણિ Nirgrantha (अंतिम प्रार्थना-) प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि च किंकरोऽस्मि, त्वत्सेवकानामपि सेवकोऽस्मि / याचेऽहमित्येव न किञ्चिदन्यत् कृपाकटाक्षेन विलोकनीयः // 8 // श्री भानुचन्द्र वरवाचक चक्रवर्ती, स्वच्छाशय: सुविहितोऽपिहिपापभीरु / आत्मीयदुश्चरितकीर्तन चारुदंभादालोचनामिति चकार विचारचञ्चुः // 81 // (पाठान्तरम् ) श्री भानुचन्द्र वरवाचक चक्रवर्ती, स्वच्छाशयोऽपिहि जिनाधिपतेः पुरस्ताद्। आत्मीयदुश्चरितकीर्तन चारुदंभादालोचनां विहितवान् विधिवद् विधिज्ञः // 82 // इति पादशाह श्री अकब्बर जल्लालदीन श्री सूर्यसहस्र नामाध्यापक श्री शत्रुञ्जय तीर्थकर विमोचन, गोवध निवर्तनाद्यनेक सुकृत निर्मापक महोपाध्याय श्री भानुचन्द्र गणि विरचितं स्वप्रमादा चरणालोचना गर्भितं श्री नाभेयजिनविज्ञप्तिरूपं स्तवनं समाप्तमिति / / संवत् 1717 वर्षे मागशिर वदि 7 शुक्रे महोपाध्याय 5 चीं सिद्धिचन्द्र गणिभि: शोधितम् // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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