Book Title: Ahimsa ka Swarup aur Mahattva
Author(s): Chandranarayan Mishr
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 6
________________ है। हमारे सुख-दुःख के कारण सामान्यतया इन्हीं सम्बन्धों के रूप पर निर्भर करते हैं । इसी प्रसंग में यह भी ध्यान में रखना है कि जैन और बौद्ध दर्शन इस तथ्य में विश्वास करते हैं कि अपने सुख-दुःख के निर्माणकर्ता हम स्वयं हैं । कर्मवाद पर अटूट विश्वास एवं आस्था रखते हुए जैन दार्शनिकों का यह मन्तव्य है कि जो भी हमारे सुख-दुःख के अनुभव हैं वे सभी अपने ही कर्म के फल हैं। जैसी करनी वैसी भरनी । जो आम का पौधा लगाएगा उसे अमृतफल रसाल मिलेगा, किन्तु जो बबूल का पौधा लगाएगा उसे तो निश्चितरूपेग काँटे ही मिलेंगे, यह अनुभव-सिद्ध है। विज्ञान एवं दर्शन भी इस कार्यकारणवाद की अनिवार्यता पर विश्वास करते हैं कि कार्य एवं कारण में सजातीयता होती है और क्रिया के अनुरूप प्रतिक्रिया भी होती है । कहने का तात्पर्य यह कि कोई भी ऐसा कर्म नहीं होता जो किसी अन्य कर्म के रूप में प्रतिफलित नहीं होता हो। इस सामान्य नियम की पृष्ठभूमि में अब हम अपनी मूलप्रकृति पर पुनः दृष्टिपात करें। इसका निर्देश प्रसंगवश प्रारम्भ में ही कर दिया गया है कि हम स्वभावतः सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति की कामना करते हैं । मरणत्रास सबसे बडा भय है और जीवन सबसे प्रिय वस्तु होती है। भगवान महावीर ने इसी जीवन के प्रेरक मूलतत्त्व को अपनी देशना का आधार बनाकर कहा है सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा । पियजीविणो जीविउकामा सवेसि जीवियं पियं ॥ (आचारांग सूत्र १/२/३/६३-६४) उपर्युक्त सत्य को अनिवार्य रूप से मानना ही पड़ेगा। तब फिर कर्म की बात आती है कि कौन से ऐसे कर्म हैं जिनके द्वारा उपयुक्त इच्छा की यथावत् पूत्ति हो सकती है। इष्ट कर्म की प्राप्ति अनिष्ट कर्म के माध्यम से नहीं हो सकती है। अतः किसी अन्य को सुख देकर ही कोई स्वयं भी सुखी हो सकता है, अन्यथा नहीं : सर्वाणि सत्त्वानि सुखे रतानि, दुःखाच्च सर्वाणि समुद्विजन्ति । तस्मात् सुखार्थी सुखमेव दद्यात्, सुखप्रदाता लभते सुखानि ॥ (सूत्रकृतांगवृत्ति) इसको समझने के लिए कि हमारा कौनसा कर्म औरों के लिए प्रिय अथवा अप्रिय होगा हमें कहीं अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं है । यह स्वसंवेद्य है-हम अपने आप से पूछकर यह समझ सकते हैं कि क्या प्रिय (अहिंसात्मक) और क्या अप्रिय (हिंसात्मक) है। हमें जो व्यवहार स्वयं नहीं रुचता उसे दूसरों के प्रति नहीं करना है : आत्मनः प्रतिकूलानि न परेषां समाचरेत् । (उपासकाध्ययन, भा. I, श्लो. २६७) यही अहिंसा-संहिता का प्रथम मूलमन्त्र है। अहिंसा के व्यवहार को अन्य प्राणियों के प्रति भी प्रसारित करने के लिए हमारी सत्त्वात्मक वति स्वयं हमें उत्प्रेरित करती है। इसी को कितने सहजभाव से एक साधु-हृदय के स्वानुभूतिपूर्ण उद्गार ने यों प्रकट किया है: प्राणा यथात्मनोऽभीष्टाः भूतानामपि ते तथा। आत्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ॥ (हितोपदेश) अहिंसा का एक पक्ष यह भी है कि इसके परिणामस्वरूप भय का निवारण अपने आप हो जाता है। जैनागम में इसे एक मार्मिक कथानक के द्वारा समझाया गया है। महाराज संयति मृगया के लिए एक बार जंगल में गये। वहाँ एक मृग पर उन्होंने तीर छोड़ा। तीर ठिकाने लगा, परन्तु वह मग बिधे हए तीर के साथ एक समाधिस्थ मुनि के आगे जा गिरा । संयति उसका पीछा करते हुए जब वहाँ आए तो ऋषि के शाप के भय के कारण काँपने लगे । ऋषि का ध्यान टूटा तो अपने अपराध के लिए संयति उनसे बारम्बार क्षमायाचना करने लगे । भयभीत महाराज की यह स्थिति देखकर ऋषि ने शान्तभाव से उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा, 'राजन् मैं तो तुम्हें अभयदान देता ही हूं, साथ ही यह भी तुझसे कहता हूं कि तू भी अभयदाता बन । इस छोटे से जीवन में प्राणियों का पीड़न कर तू स्वयं कैसे सुखी रह पाएगा?': अभयो पत्थिवा तुम्भं अभयंदाया भवाहि य । अगिच्चे जोवलोगम्मि किं हिंसाये पसज्जसि ।। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिमन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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