Book Title: Ahimsa ka Swarup aur Mahattva
Author(s): Chandranarayan Mishr
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 1
________________ हिंसा का स्वरूप और महत्व अहिंसा का मनोवैज्ञानिक आधार अत्यन्त व्यावहारिक रूप में भी यह मानना ही पड़ेगा कि हम जो कुछ कार्य करते हैं उसके पीछे हमारी एकमात्र भावात्मक एषणा यही रहती है कि हमें सुख हो। उसी के गर्भ में यह निषेधात्मक एषणा भी रहती है कि हमें दुःख नहीं हो : -Pe दुःखं न मे स्वात् सुखमेव मे स्थात्, इति प्रवृत्तः सततं हि लोकः । ( बुद्धचरित) इस सत्य को आधार बनाकर ही जैन मनीषियों ने अहिंसा के सुखेच्छा की मौलिक प्राणिप्रवृत्ति को ही पुरोभाग में रखते हुए कहा था : Jain Education International डा० चन्द्रनारायण मिश्र व्यवहार की उपादेयता बतलाई है। भगवान महावीर ने सब्बे जीवा वि इच्छन्ति जीविडं न मरीजिउं । तन्हा पाणिव पोरं निांचा वचपंतिणं ॥ सब जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता है। यह एक ऐसी नैसर्गिक और सहज प्रवृत्ति है जिसको इनकारा नहीं जा सकता है । यह एक ऐसे साधारण अनुभव की बात है जो व्यक्ति से लेकर समाज और राष्ट्र तक पर लागू है । वस्तुतः यह सृष्टि के विधान का ही एक आवश्यक प्रेरक तत्त्व हैं कि हम जीना चाहते हैं । दूसरे रूप में इसे यों भी कहा जा सकता है कि प्रकृति ने हमें जीने का मौलिक अधिकार दिया है। इस अधिकार को यदि कोई जबरन छीनने का प्रयास करता है तो वह घोर अन्याय करता है, पाप करता है । शाश्वत प्रकृति-धर्म के विरुद्ध का आचरण अन्याय और पाप नहीं तो और क्या ? इतना ही नहीं, प्रकृति जिन नियमों में आबद्ध होकर परिचालित होती हैं उसका यदि कोई उल्लंघन करता है तो उसे प्रकृति के आक्रोश का भागी बनना ही पड़ता है। यह आक्रोश किसी को क्षमा नहीं करता । आक्रोश कार्यशील होकर असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न करता है। हो जाता है, अर्थात् उसके सम्पर्क में आए अन्य बिन्दुओं को भी प्रभावित कर देता है । का ताँता लग जाता है। इसी को व्यक्तिगत अथवा सामाजिक जीवन में अशान्ति की स्थिति कहते हैं । साथ ही, एक बिन्दु पर का असन्तुलन सर्वत्र व्याप्त असन्तुलन की क्रिया-प्रतिक्रिया ऐसी होती है कि क्षोभों इसके विरोध में यह कहा जा सकता है कि जिस जीने की मूल प्रवृत्ति की चर्चा की गयी है उसी का यह भी तो एक उपनियम है कि 'जीवो जीवस्य घातकः' । विकासवाद के नवीन पक्षपाती इसी को survival of the fittest की संज्ञा देते हैं । योग भाष्यकार ने इसी प्रकार के एक प्राचीन मत को उद्धृत किया है जिसका कहना है कि जब तक अन्य प्राणियों की हत्या न की जाय तब तक सांसारिक उपभोग सम्भव नहीं हो सकता है नानुपहत्य भूतान्युपभोगः भवतीति हिसायोज्यस्ति शारीरः कर्माशय इति । (योगमाध्य, २ / १५ ) यह तो अनुभव सिद्ध ही है कि बड़े-बड़े विजेताओं के विजय स्तम्भ की नींव धनियों की गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ दरिद्रों को झोपड़ियों को धराशायी कर बनाई गई बिना सम्भव ही नहीं है । सांसारिक जीवन को दौड़ में वही आगे निकल सकता है जो साथ धर्म एवं आचार For Private & Personal Use Only अनगिनत नरमुण्डों पर खड़ी की गयी और किसी भी महत्वाकांक्षा की पूर्ति परवीन के दौड़ने वालों को धक्का देकर गिरा सकता ८५ www.jainelibrary.org

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