Book Title: Ahimsa ka Swarup aur Mahattva Author(s): Chandranarayan Mishr Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 4
________________ हिंसा नहीं है। साथ ही, केवल वही हिंसा का दोषी नहीं है जो साक्षात् रूप से प्राणी की हिंसा करता है । साक्षात् अथवा परम्परया किसी भी रूप में यदि किसी जीवधारी को कष्ट पहुंचाया जाता है तो वह हिंसा का उदाहरण होता है। कृत, कारित और अनुमोदितये तीन हिंसा के प्रारम्भिक भेद हैं। कोई हिंसा ऐसी होती है जो कर्त्ता के द्वारा साक्षात् रूप से की जाती है, जैसे किसी व्याधा के द्वारा किसी पशु अथवा पक्षी की हत्या । परन्तु यदि कोई व्यक्ति स्वयं हिंसा नहीं करता बल्कि दूसरे के द्वारा करवाता है तो उसमें भी उसका प्रेरक कर्म हिंसा की ही कोटि में आता है। फलतः किसी की आज्ञा के द्वारा यदि हत्या की जाती है तो आज्ञा देने वाला भी हिंसक ही कहलाएगा। तीसरा भेद वह है जो न कृत है और न कारित हो, किन्तु जिसकी स्वीकृति भर दी गयी हो । किसी प्राणी के वध का विरोध करने के बजाय यदि यह कहा जाय कि 'ठीक है' तो इस प्रकार की स्वीकृति को अनुमोदित हत्या कहेंगे। इनमें से प्रत्येक को लोभ, क्रोध और मोह के भेद से पुनः तीन भागों में विभाजित किया गया है। लोभ-जन्य हत्या या हिंसा का उदाहरण मांस और चमड़े के लिए बकरे आदि का वध है । किसी अपकार का बदला लेने के लिए जो वध किया जाता है वह क्रोधजन्य हिंसा का उदाहरण होता है । फिर होने के कारण मुसलमानों ने भारतवर्ष में आकर हिन्दुओं का जो कत्लेआम किया वह मोहजन्य हिंसा का उदाहरण है क्योंकि इस प्रकार की हत्या का कारण भ्रमात्मक बुद्धि ही है । फिर मृदुता, मध्यता और तीव्रता के आपेक्षिक भेद के कारण प्रत्येक का मृदु-मृदु, मध्यमृदु, तीव्रमृदु; मृदुमध्य, मध्यमध्य, तीव्रमध्य; मृदुतीव्र, मध्यतीव्र एवं अधिमात्रतीव्र आदि के भेद से इक्यासी प्रकार की हिंसा कही गयी है। यह भी दिग्दर्शनमात्र है । प्राणियों की संख्या अनन्त है; अतः हिंसा का प्रकार भी असंख्येय हो सकता है : वितक हिसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभ-कांधमोहपूर्वका मदमध्याऽधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तता इति प्रतिपक्ष भावनम् - योगसूत्र ३/३४ इन सभी हिंसाओं से बचना ही अहिंसा है । यों तो अहिंसा शब्द साधारणतया और स्वरूपतः भी निषेधात्मक प्रवृत्ति के अर्थ में व्यवहृत होता आया है। परन्तु अर्थतः यह अभावरूप नहीं है । वस्तुतः इसके अर्थ का बाह्यरूप आभावात्मक और आभ्यन्तर रूप भावात्मक एवं विधिपरक है। इसलिए यह कहना उपयुक्त होगा कि एक ही अहिंसाविचार के दो पक्ष हैं। प्रथम में प्राणियों के प्रति प्रतिकूल या अकुशलमूलात्मक प्रवृत्तियों का निषेध है तो द्वितीय में कुशलमूलात्मक प्रवृत्तियों का स्वतः विधान है अहिंसा के इस प्रकार महत्वगभित होने के कारण ही सत्य, अस्तेय, ब्रह्ममयं अपरिग्रह के यमनियमों के मूल में इसके अस्तित्व को माना गया है— उत्तरे च यमनियमास्तन्मूला - ( व्यासभाष्यं २ / ३० ) यह एक ऐसा महाव्रत है जो देशकाल की भिन्नताओं द्वारा अवच्छिन्न होकर सर्वत्र एक रूप से लागू है । जाति-देश-कालसमवाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् । योगसूत्र २ / ३१ यों तो वेदों में भी 'मा हिस्यात् सर्वभूतानि जैसे अहमा प्रतिपादक वाक्य मिलते ही है, किन्तु मीमांसक इस सामान्य-मास्त्र मछुए 1 का विरोध 'अग्नीषोमीयं पशुमालभेत' जैसे विशेष शास्त्र के द्वारा मानकर कादाचित्क हिंसा का भी समर्थन करते हैं। परन्तु पीछे चलकर प्रायः जैन एवं बौद्ध विचारों से प्रभावित होकर सांख्य एवं योग जैसे वैदिक दर्शनों ने भी अहिंसा में अपवाद का विरोध किया (सांख्यतत्त्व कौमुदी, २) एक व्यावहारिक विचार यह भी प्रस्तुत किया गया है कि किसी जातिविशेष के व्यवसाय में हुई हिंसा को हिंसा नहीं समझा जाय जैसे के लिए मछली मारने में हिंसा को उसी प्रकार पुण्यतीर्थ (कामी, प्रयाग आदि) और पुष्यदिन ( चतुर्दशी आदि) में हिसा का वर्जन किया गया एवं किसी पुण्यकार्य के लिए की गयी हिंसा को हिंसा नहीं समझा गया । परन्तु व्यासभाष्य ने इस विचार का खण्डन कर यह निश्चित किया है कि अहिंसा में किसी भी प्रकार का व्यभिचार सम्भव नहीं है क्योंकि यह तो एक सार्वभौम व्रत है (व्यासभाष्य, २/३१) । अहिंसा के जिस भावात्मक पहलू की चर्चा की गयी है उसमें प्रायः सभी सत्त्वात्मक गुणों का समावेश हो जाता है, फिर भी उन सबों में प्रमुख स्थान कृपाभाव का है। यही कारण है कि जैनों के प्रश्नव्याकरण सूत्र में अहिंसा को दया भी कहा गया है। इसी को अनुकम्पा या कृपा भी कहते हैं। किसी प्राणी को प्रतिकूल सम्वेदन से अनुकूल सम्वेदन की स्थिति में देखने के लिए सहानुभूतिपूर्ण अन्तःप्रेरणा को दया की संज्ञा दी गयी है : ८८ अनुकम्पा कृपा । यथा सर्वे एव सत्त्वाः सुखार्थिनो दुःखप्रहाणार्थिनश्च ततो नैषामल्पापि पीड़ा मया कार्येति । अहिंसा के गर्भ में भी यही भावना होती है— अहिंसा सानुकम्पा च । ( प्रश्नव्याकरण टीका, १ सं० ) । Jain Education International ( धर्म संग्रह, अधि० २ ) आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन क For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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