Book Title: Ahimsa Divas Manaye Author(s): Rikhabchand Jain Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf View full book textPage 1
________________ रिखबचन्द जैन अध्यक्ष- अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा अकादमी अहिंसा दिवस मनायें अहिंसा मनुष्य की सहज प्रवृति है । साधारणतया मनुष्य हिंसक नहीं होता है । परन्तु कभी-कभी आदमी भी पशुवत व्यवहार करने लग जाता है। हिंसा का भूत सवार होने पर वह दैत्य की तरह मार-काट, क्रोध, द्वेष करने लगता है। पशु जगत तो हिंसा से ही जाना जाता है। पशुओं में दो जातियां होती है, हिंसक पशु जैसे शेर, भालू आदि और अहिंसक पशु जैसे गाय, भेड़, बकरी आदि। लेकिन मानव की सिर्फ एक ही जाति होती है वह है अहिंसक । उत्तेजना स्वरूप या दिमाग में विचारान्तर से वह हिंसक व्यवहार के दौर में आ जाता है। अहिंसक पशु भी इसी तरह उत्तेजना से कुछ समय के लिए हिंसक बन जाते हैं। अतः यह स्पष्ट है कि मानव जाति जन्म से, प्रकृति से, सहज प्रवृति से अहिंसक है, यानि कि अहिंसा उसका धर्म है। संसार में जितने भी धर्म स्थापित हुए हैं, वे को मनुष्य मनुष्य बनाये रखने के लिए हुए हैं। चूंकि मनुष्य उत्तेजना के वेग में हिंसक रूप धारण कर सकता है इसलिए उसे उस वेग में जाने से रोकने के लिए, उसकी प्रवृति में प्रतिकूल बदलाव न आने पाये इसलिए उसे शिक्षा, प्रशिक्षण, नियम, सिद्धान्त परिचय, ज्ञान आदि दिये जाते हैं। इसी क्रिया को धर्म-बोध, कर्त्तव्य बोध कराना कहते हैं और सहज मानवीय गुण अहिंसा, सत्य, संयम, Jain Education International परस्पर सहयोग, प्रेम, करुणा, दया के आचरण को ही धर्म व्यवहार की संज्ञा दी गई है। कोई भी दुनिया का धर्म सहज मानवीय गुणों की जगह दानवीय गुणों को बढ़ावा देने या व्यक्ति को उस ओर प्रवृत्त करता है तो वह धर्म नहीं अधर्म है, पाप है, अवांछनीय है। आतंकवादी संगठन या उसका प्रशिक्षण केन्द्र जो मनुष्य को हैवान बनाकर हिंसक काम करवाना चाहता है उसे हम धर्म नहीं कह सकते हैं। लेकिन रक्षा व्यवस्था के लिए दिये जाने वाला ऐसा ही सैन्य प्रशिक्षण धर्मसंगत होगा। अगर सैन्य प्रशिक्षण का उद्देश्य हिंसा फैलाना है, आक्रमण करना है (रक्षाप्रतिरक्षा की जगह) तो ऐसी क्रिया हिंसक कर्म ही गिनी जायेगी। हिन्दू, वैदिक, सनातन, जैन, बौद्ध, सिख, आर्य समाज, पारसी, यहूदी, ईसाई, कन्फुसियस, आदि विभिन्न धर्मों के सिद्धान्त उनकी व्याख्या मनुष्य को अहिंसक प्रवृत्तियों में स्थापित रखना ही है। पाशविक वृत्तियों, दानवीय कृत्यों और घृणित बातों जैसे क्रोध, अहंकार, मद, माया, मोह, लालच, कपट, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रखने का काम ही धर्म है। बिना सत्य और अहिंसा के यह कार्य हो ही नहीं सकता है। किसी भी धर्म संस्थापक ने सत्य, अहिंसा के गुणों को छोड़ते हुए अपने धार्मिक नियम नहीं बनाये। बना भी नहीं सकते। अत: यह सत्य है ि अहिंसा ही सभी धर्मों का सार है, जड़ है और बाकी के धार्मिक नियम, क्रिया, आचरण, ज्ञान इन्हीं से उत्पन्न होते हैं। आइये, मानव सभ्यता की भी बात कर लें । परस्पर सहयोग, आपसी प्रेम, संवेदना, करुणा, दया, आदि गुणों के मानवीय आचरण के समावेश को ही सभ्यता कहते हैं। क्या कोई मानव समूह अगर कुत्तों की तरह दिन-रात लड़ता है, झगड़ता है, दोष प्रतिदोष एवं कुकर्मों में व्यस्त है तो आप उसे जंगली, असभ्य कहेंगे या सभ्य कहेंगे। हिन्दू, चीनी, मिश्र, रोम, युनान, माया, आदि सभी मानव संस्कृतियां परस्पर प्रेम और सहयोग ( परस्परोपग्रह जीवानाम) के बल पर ही विकसित हुई। भगवान ऋषभदेव ने आदि संस्कृति की स्थापना प्रेम व्यवहार ( या उसे अहिंसा कहें) के आधार पर ही की। कबीलायी जीवन को व्यवस्थित कृषिमय, पशुपालन के साथ ग्राम्य जीवन में परिवर्तित किया। शिकार द्वारा भोजन प्राप्त करने की जगह खेती द्वारा भोजन व्यवस्था दी। इस तरह यह भी स्पष्ट हुआ कि जहाँ सभ्यता है वहाँ अहिंसा ही है, वहाँ अहिंसा ही सर्वोपरि विधि है, अहिंसा ही क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये कि निर्णायक शक्ति है। इस तरह यह मालूम पड़ता है कि अहिंसा मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। प्रकृति से मनुष्य अहिंसक है। सभी धर्मों की ० अष्टदशी / 203 For Private Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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