Book Title: Agamik Churniya aur Churnikar Author(s): Mohanlal Mehta Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 8
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ करते हुए पंचम अध्ययन का व्याख्यान समाप्त किया गया है। षष्ठ अध्ययन, प्रत्याख्यान की चूर्णि में प्रत्याख्यान के भेद, श्रावक के भेद, सम्यक्त्व के अतिचार, स्थूलप्राणातिपातविरमण और उसके अतिचार, स्थूलमृषावादविरमण और उसके अतिचार, स्थूल अदत्तादानविरमण और उसके अतिचार, स्वदारसंतोष और परदारप्रत्याख्यान एवं तत्संबंधी अतिचार, परिग्रहपरिमाण एवं तद्विषयक अतिचार, तीन गुणव्रत और उनके अतिचार, चार शिक्षाव्रत और उनके अतिचार, दस प्रकार के प्रत्याख्यान, प्रकार की विशुद्धि, प्रत्याख्यान के गुण और आगार आदि का विविध उदाहरणों के साथ व्याख्यान किया गया है। बीच-बीच में यत्र-तत्र अनेक गाथाएँ एवं श्लोक भी उद्धृत किए गए हैं। अंत में प्रस्तुत संस्करण की प्रति के विषय में लिखा गया है कि सं. १७७४ में पं. दीपविजयगणि ने पं. न्यायसागरगणि को आवश्यकचूर्णि प्रदान की-सं. १७७४ वर्षे पं. दीपविजयगणिना आवश्यकचूर्णि: पं. श्रीन्यायसागरगणिभ्यः प्रदत्ता । ४३ छह आवश्यकचूर्णि के इस परिचय से स्पष्ट है कि चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर ने अपनी प्रस्तुति कृति में आवश्यक निर्युक्ति में निर्दिष्ट सभी विषयों का पूर्वक विवेचन किया है तथा विवेचन की सरलता, सरसता एवं स्पष्टता की दृष्टि से अनेक प्राचीन ऐतिहासिक एवं पौराणिक आख्यान उद्धृत किए हैं। इसी प्रकार विवेचन में यत्र-तत्र अनेक गाथाओं एवं श्लोकों का समावेश भी किया है। यह सामग्री भारतीय इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। दशवैकालिकचूर्णि (जिनदासगणिकृत) यह चूर्णि भी नियुक्ति का अनुसरण करते हुए लिखी गई है तथा द्रुमपुष्पिका आदि दस अध्ययन एवं दो चूलिकाएँइस प्रकार बारह अध्ययनों में विभक्त है। इसकी भाषा मुख्यतया प्राकृत है। प्रथम अध्ययन में एकक, काल, द्रुम, धर्म आदि पदों का निक्षेप पद्धति से विचार किया गया तथा शय्यंभववृत्त, दस प्रकार के श्रमणधर्म, अनुमान के विविध अवयव आदि का प्रतिपादन किया गया है। संक्षेप में प्रथम अध्ययन में धर्म की प्रशंसा का वर्णन किया गया है। द्वितीय अध्ययन का मुख्य विषय धर्म में स्थित व्यक्ति को धृति कराना है । चूर्णिकार इस Jain Education International For Private जैन आगम एवं साहित्य अध्ययन की व्याख्या के प्रारंभ में ही कहते हैं कि अध्ययन के चार अनुयोग द्वारों का व्याख्यान उसी प्रकार समझ लेना चाहिए जिस प्रकार आवश्यकचूर्णि में किया गया है। *५ इसके बाद श्रमण के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए पूर्व काम, पद, शीलांगसहस्र आदि पदों का सोदाहरण विवेचन किया गया है। तृतीय अध्ययन में दृढधृतिक के आचार का प्रतिपादन किया गया है। इसके लिए महत्, क्षुल्लक, आचार, दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार, अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा, मिश्रकथा, अनाचीर्ण, संयतस्वरूप आदि का विचार किया गया है। चतुर्थ अध्ययन की चूर्णि में जीव, अजीव, चारित्रधर्म, यतना, उपदेश, धर्मफल आदि के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। पंचम अध्ययन की चूर्णि में साधु के उत्तरगुणों का विचार किया गया है जिसमें पिण्डस्वरूप, भक्तपानैषणा, गमनविधि, गोचरविधि, पानकविधि, परिष्ठापन विधि, भोजनविधि, आलोचनविधि आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। बीच-बीच में कहीं-कहीं पर मांसाहार, मद्यपान आदि की चर्चा भी की गई है । ४६ षष्ठ अध्ययन में धर्म, अर्थ, काम, व्रतषट्क, कायषट्क आदि का प्रतिपादन किया गया है । इस अध्ययन की चूर्णि में आचार्य ने अपने संस्कृतव्याकरण के पाण्डित्य का भी अच्छा परिचय दिया है। सप्तम अध्ययन की चूर्णि में भाषासंबंधी विवेचन है। इसमें भाषा की शुद्धि, अशुद्धि, सत्य, मृषा सत्यमृषा, असत्यमृषा आदि का विचार किया गया है। अष्टम अध्ययन की चूर्णि में इंद्रियादि प्रणिधियों का विवेचन किया गया है। नवम अध्ययन की चूर्णि लोकोपचारविनय, अर्थविनय, कामविनय, भवविनय, मोक्षविनय आदि की व्याख्या की गई है। दशम अध्ययन में भिक्षुसंबंधी गुणों पर प्रकाश डाला गया है। चूलिकाओं की चूर्णि में रति, अरति, विहारविधि, गृहिवैयावृत्यनिषेध, अनिकेतवास आदि विषयों से संबंधित विवेचन है। चूर्णिकार ने स्थान-स्थान पर अनेक ग्रंथों के नामों का निर्देश भी किया है। ४७ ३१ उत्तराध्ययनचूर्णि यह चूर्णि भी निर्युक्त्यनुसारी है तथा संस्कृतिमिश्रित प्राकृत में लिखी गई है। इसमें संयोग, पुद्गलबन्ध, संस्थान, विनय, क्रोधवारण, अनुशासन, परीषह, धर्मविघ्न, मरण, निर्ग्रन्थपंचक, भयसप्तक ज्ञानक्रियैकान्त आदि विषयों पर सोदाहरण प्रकाश डाला गया है। स्त्रीपरीषह का विवेचन करते Personal Use Only Moto www.jainelibrary.orgPage Navigation
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