Book Title: Agam Sahitya me Puja Shabda ka Arth Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 3
________________ साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ प्रश्नव्याकरण सूत्र में - "न वि वंदणाते, न वि माणणाते न वि पूयणाते भिक्खं गवेसियव्वं' पाठ है। जैन विश्व भारती प्रकाशित ६.६. उसकी टीका में आचार्य अभयदेव ने लिखा है- "नापि पूजनया - तीर्थनिर्माल्यदान-मस्तकगन्ध-क्षेप-मुखवस्त्रिका - नमस्कारमालिका - दानादि लक्षणया" -आगमो० ५०१०६ सूत्रकृतांग (१.२.२. ११) में पाठ है " जाविय वंदण - पूयणा इहं" उसकी टीका में आचार्य शीलांक लिखते हैं- " राजादिभिः कायादिभिः वंदना, वस्त्रपात्रादिभिश्च पूजना " - आगमो० पृ० ६४, दिल्ली पृ० ४३ सूत्रकृतांग (१. ३. ४. १७) में पाठ है - जेहिं नारीण संजोगा पूयणा पिट्ठतो कता" उसकी टीका में आ० शीलांक लिखते हैं कि - " तथा तत्संगार्थमेव वस्त्रालंकारमाल्यादिभिः आत्मनः 'पूजना' कामविभूषा पृष्ठतः कृत " - आगमो० पृ० १००, दिल्ली पृ० ६७ । सूत्रकृतांग (१. २. २.१६) में - "नोऽवि य पूयणपत्थए सिया" पाठ है उसकी टीका आ० शीलांक इस प्रकार करते हैं - " न च उपसर्गसहन द्वारेण पूजाप्रार्थकः प्रकर्षाभिलाषी स्यात् भवेत्” -आगमो० पृ० ६५, दिल्ली पृ० ४४ सूत्रकृतांग (१. २. ३. १२) में "निव्विंदेज्ज सिलोग-पूयणं” पाठ है उसकी टीका में आ० शीलांक ने लिखा है कि-“निर्विन्द्येत - जुगुप्सयेत् परिहरेत् आत्मश्लाघां स्तुतिरूपां तथा पूजनं वस्त्रादिलाभरूपं परिहरेतु" -आगमो० पृ०७३, दिल्ली पृ० ૪૨ सूत्रकृतांग (१. ६. २२) में "जा य वंदण पूयणा" पाठ है उसकी टीका आ० शीलांक ने इस प्रकार की है " तथा याच सुरासुराधिपति चक्रवति वलदेव वासुदेवादिभिः वंदना, तथा सत्कार पूर्विका वस्त्रादिना पूजना " - आगमो० पृ० १६ - १-२ दिल्ली पृ० २२१-२ सूत्रकृतांग (१५-११) में " वसुमं पूयणासु (स) ते अणासए" कहा है उसकी टीका में आ० शीलांक ने इस प्रकार कहा है- "किं भूतोऽसौ अनुशासक इत्याह- वसु द्रव्यं स च मोक्षं प्रति प्रवृत्तस्य संयमः, तद्विद्यते यस्यासौ वसुमान् । पूजनं देवादिकृतमशोकादिकमास्वादयति उपभुङक्त इति पूजनास्वादकः । ननु चाधाकर्मणो देवादिकृतस्य समवसरणादेरूपभोगात् कथमसौ सत्संयमवान् इत्याशंक्याह न विद्यते आशयः पूजाभिप्रायो यस्य असौ अनाशयः, यदि वा द्रव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके भावतोऽ नास्वादकोऽसौ तदुत गार्ध्याभावात् । " - आगमो० पृ० २५७, दिल्ली पृ० १२७. पुर्याट्ठ समवायांग सूत्र (समवाय ३०) में तीस महामोहनीय स्थान के वर्णन के प्रसङ्ग में ३४वीं गाथा निम्नोक्त / है उसमें तीसवाँ स्थान है अपस्समाणो पस्सामि देवे जक्खे य गुज्झगे । अण्णाणी जिणपूयट्ठी महामोहं पकुव्वइ ॥ ३४ ॥ उसकी टीका आचार्य अभयदेव इस प्रकार करते हैं- "अपश्यन्नपि यो ब्रूते पश्यामि देवानित्यादिस्वरूपेण अज्ञानी जिनस्येव पूजां अर्थयते यः स जिनपूजार्थी गोशालकवत् । स महामोहं प्रकरोतीति ।" - आगमो० पृ० ५५, दिल्ली पृ० ३७ जैन अंग आगम साहित्य में पूजा शब्द का अर्थ : पं० दलसुख मालवणिया | २५. www.jaPage Navigation
1 2 3 4